Saturday, December 31, 2011

आप सब को नए साल 2012 की हार्दिक शुभकामनाएँ|

                साल 2011 कुछ ही घंटों का मेहमान है, कुछ ही घंटों बाद साल 2012 आ  जायेगा| नया  साल 2012 आप लोगों के लिए खुशियों भरा हो मंगलमय हो भगवान आप सब की मनोकामना पूर्ण करे और आप सब नए साल 2012 में दिन दुगुनी रात चौगुनी तरक्की  करें| यह मेरी आप सब के लिए हार्दिक शुभकामना है| कल नए साल की  सुबह  होगी आइए इस मौके पर हम संकल्प करें कि हम इस देश के सच्चे नागरिक बनें| अंत में आप सब को नए साल 2012 की हार्दिक शुभकामनाएँ|


                                        ख्याली राम जोशी (पाटली)

Thursday, December 22, 2011

लोभ से विनाश

               बहुत समय पहले की बात है| किसी गांव में एक किसान रहता था| गांव में ही  खेती का काम करके अपना और अपने परिवार का पेट पलता था| किसान अपने खेतों में बहुत मेहनत से काम करता था, परन्तु इसमें उसे कभी लाभ नहीं होता था| एक दिन दोपहर में धूप से पीड़ित होकर वह अपने खेत के पास एक पेड़ की छाया में आराम कर रहा था| सहसा उस ने देखा कि एक एक सर्प उसके पास ही बाल्मिक (बांबी) से निकल कर फन फैलाए बैठा है| किसान आस्तिक और धर्मात्मा प्रकृति का सज्जन व्यक्ति था| उसने विचार किया कि ये नागदेव अवश्य ही मेरे खेत के देवता हैं, मैंने कभी इनकी पूजा नहीं की, लगता है इसी लिए मुझे खेती से लाभ नहीं मिला| यह सोचकर वह बाल्मिक  के पास जाकर बोला-"हे क्षेत्ररक्षक नागदेव! मुझे अब तक मालूम नहीं था कि आप यहाँ रहते हैं, इसलिए मैंने कभी आपकी पूजा नहीं की, अब आप मेरी रक्षा करें|" ऐसा कहकर एक कसोरे में दूध लाकर नागदेवता के लिए रखकर वह घर चला गया| प्रात:काल खेत में आने पर उसने देखा कि कसोरे में एक स्वर्ण मुद्रा रखी हुई है| अब किसान प्रतिदिन नागदेवता को दूध पिलाता और बदले में उसे एक स्वर्ण  मुद्रा प्राप्त होती| यह क्रम बहुत समय तक चलता रहा| किसान की सामाजिक और आर्थिक हालत बदल गई थी| अब वह धनाड्य  हो गया था|
                     एक दिन किसान को किसी काम से दूसरे गांव जाना था| अत: उसने नित्यप्रति का यह कार्य अपने बेटे को सौंप दिया| किसान का बेटा किसान के बिपरीत लालची और क्रूर स्वभाव का था| वह दूध लेकर गया और सर्प के बाल्मिक के पास रख कर लौट आया| दूसरे दिन जब कसोरालेने गया तो उसने देखाकि उसमें एक स्वर्ण मुद्रा रखी है| उसे देखकर उसके मन में लालच  आ गया| उसने सोचा कि इस बाल्मिक में बहुत सी स्वर्णमुद्राएँ हैं और यह सर्प उसका रक्षक है| यदि में इस सर्प को मार कर बाल्मिक खोदूं तो मुझे सारी स्वर्णमुद्राएँ एकसाथ मिल जाएंगी| यह  सोचकर उसने सर्प पर प्रहार किया, परन्तु भाग्यवस   सर्प बच गया एवं क्रोधित हो अपने विषैले दांतों से उसने उसे काट लिया| इस प्रकार किसान बेटे की लोभवस मृतु हो गई| इसी लिए कहते हैं कि लोभ करना ठीक नहीं है|

Friday, December 9, 2011

इन्द्रियों की सार्थकता भगवान विष्णु के अभिमुख होने में है

              पादौ तौ सफलौ पुंसां यू विष्णु  गृह्गामिनौ|   तौ करौ  सफलौ ज्ञेयौ  विष्णुपुजापरौ तू यौ||
              ते  नेत्रे  सफले पुंसां पश्यतो ये जनार्दनम|  सा जिह्वा  प्रोच्यते    सभ्दिर्हरीनामपरा तू या ||
              सत्यं सत्यं पुन: सत्यामुदधृत्य भुजमुच्यते|   तत्वं गुरुसमं नास्ति न देव: केशवात पर:||
              सत्यं वच्मि हितं वच्मि सारं वच्मि पुन:पुन:| असारेSस्मिस्तु संसारे सत्यं हरिसमर्चनम||
              संसारपाशं     सुदृढ़     महामोहप्रदायकम|   हरिभक्ति  कुठारेण  छित्वाSत्यंतसुखी   भव||
              तनमन: संयुतं विष्णौ सा वाणी तत्परायना|   ते  श्रोत्रे तत्कथासारपूरिते  लोक विन्दिते ||



             मनुष्य के उन्हीं पैरों को सफल मानना चाहिए, जो भगवान् विष्णु के मंदिर में दर्शन के लिए जाते हैं| उन्ही हाथों को सफल मानना चाहिए, जो भगवन विष्णु की पूजा में तत्पर रहें| पुरुषों के उन्हीं नेत्रों को पूर्णतया सफल जानना चाहिए, जो भगवान जनार्दन का दर्शन करते हैं| साधु पुरुषों ने उसी जिह्वा को सफल बताया है, जो निरंतर हरी नाम के जप और कीर्तन में लगी रहे| भुजा उठाकर बार-बार सच्ची बात कही जाती है कि गुरु के सामान कोई तत्व नहीं है और विष्णु के सामान कोई देवता नहीं है| में सत्य कहता हूँ, हितकी बात करता हूँ और बार-बार सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान बताता हूँ कि इस असार संसार में केवल श्रीहरी की आराधना ही सत्य है| यह संसार बंधन अत्यंत दृढ है और महान मोह में डालने वाला है| भगवद्भक्तिरूपी कुठार से इसे काट कर अत्यंत सुखी हो जाओ| वही मन सार्थक है, जो भगवान विष्णु के चिंतन में लगा रहता है,वही वाणी सार्थक है, जो भगवान के गुण-गान में निरत है तथा वेही दोनों कान समस्त जगत के लिए वंदनीय हैं, जो भगवत्कथा की सुधा-धारा से परीपूर्ण रहते हैं| ऐसे व्यक्ति के  अंत:करण में भगवन ही निवास करते हैं|  
 

Sunday, October 30, 2011

पापके स्वीकारसे पाप-नाश

                                  मोहादधर्मं य:  कृत्वा   पुन:  समनुतप्यते|
                            मन:समाधीसंयुक्तो न  स सेवेत  दुष्कृतम||
                            यथा यथा  मनस्तस्य  दुष्कृतं कर्म गर्हते|
                            तथा  तथा  शरीरं  तु  तेनाधर्मेण  मुच्यते||
                            यदि विप्रा:कथयते विप्राणां धर्मवादिनाम|
                            ततोsधर्मकृतात क्षिप्रमपराधात प्रमुच्यते||
                            यथा  यथा   नर:   साम्यगधर्ममनुभाशते|
                             समाहितेन मनसा  विमुच्यती तथा तथा||  



                    जो मोहवश अधर्म का आचरण  कर लेने पर उसके लिए पुन: सच्चे ह्रदय से पश्र्चाताप करता और मन को एकाग्र रखता है, वह पाप का सेवन नहीं करता| ज्यों ज्यों मनुष्य का मन पाप-कर्म की निंदा करता है, त्यों त्यों उसका शारीर उस अधर्म से दूर होता  जाता है| यदि धर्मवादी ब्राह्मणों के सामने अपना पाप कह दिया जाय तो वह इस पापजनित अपराध  से शीघ्र मुक्त हो जाता है| मनुष्य जैसे जैसे अपने अधर्म की बात बारम्बार प्रकट करता है, वैसे वैसे वह एकाग्रचित हो कर अधर्म को छोड़ता जाता है|


Thursday, October 20, 2011

होने पर भी नहीं है!

                        यस्याखिलामिवहभि:    सुमंग्लैर्वाचो   विमिश्रा  गुणकर्मजन्मभि:|
                              प्रानंती शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगद यास्तद्विरक्ता: शवशोभना मता:||
                     

जब समस्त पापों के नाशक भगवान के परम मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्तहो कर वाणी  उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन की स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुल कर पवित्रता का साम्राज्य छा जाता है: परन्तु जिस वाणी  से उनके गुण, लीला और जन्म की कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दे को ही शोभित करने वाली है, होने पर  भी नहीं  के सामान है| अर्थात व्यर्थ है|

Wednesday, October 12, 2011

ऋषि शंख और लिखित

                            ऋषि शंख और लिखित दो भाई थे| दोनों धर्मशास्त्रके परम मर्मग्य थे| विद्या अध्ययन समाप्त कर के दोनों ने विवाह किया और अपने अपने आश्रम अलग अलग बना कर रहने लगे|
                            एक बार ऋषि लिखित अपने बड़े भाई शंख के आश्रम पर उनसे मिलने गए| आश्रम पर उस समय कोई भी नहीं था| लिखित को भूख लगी थी| उन्हों ने बड़े भाई के बगीचे से एक फल तोडा और खाने लगे| वे फल पूरा खा भी नहीं सके थे, इतने में शंख आगये| लिखित ने उनको प्रणाम किया|
                             ऋषि शंख ने छोटे भाई को सत्कार पूर्वक समीप बुलाया| उनका कुशल समाचार पूछा| इसके पश्चात् बोले-- भाई तुम यहाँ आये और मेरी अनुपस्थिति में इस बगीचे को अपना मानकर तुमने यहाँ से फल लेलिया, इस से मुझे प्रशन्नता हुई;किन्तु हम ब्राह्मणों का सर्वस्व धर्म ही है, तुम धर्म का तत्व जानते हो| यदि किसी की वस्तु  उसकी अनुपस्तिथि में उसकी अनुमति के बिना ले ली जाए तो इस कर्म की क्या संज्ञा होगी? "चोरी!" लिखित ने बिना हिचके जवाब दिया| मुझ से प्रमादवस यह अपकर्म होगया है| अब क्या करना उचित है?
                           शंख ने कहा! राजा से इसका दंड ले आओ| इस से इस दोष का निवारण हो जायेगा| ऋषि लिखित राजधानी गए| राजाने उनको प्रणाम कर के अर्घ्य देना चाहा तो ऋषि ने उनको रोकते हुए कहा-राजन! इस समय में आपका पूजनीय नहीं हूँ| मैंने अपराध किया है, आपके लिए मैं दंडनीय हूँ|
                           
                          अपराध का वर्णन सुन कर राजाने कहा- नरेश को जैसा दंड देने का अधिकार है, वैसे ही क्षमा करने का भी अधिकार है| लिखित ने रोका- आप का काम अपराध के दंड का निर्णय करना नहीं है,विधान निश्चित करना तो ब्रह्मण का काम है| आप विधान को केवल क्रियान्वित कर सकते हैं| आप को मुझे दंड देना है, आप दंड विधान का पालन करें|
                          उस समय दंड  विधान के अनुसार चोरी का दंड था- चोर के दोनों हाथ काट देना| राजा ने लिखत के दोनों हाथ कलाई तक कटवा दिए| कटे हाथ ले कर लिखित प्रशन्न हो बड़े भाई के पास लौटे और बोले- भैया! मैं दंड ले आया|


                         शंख ने कहा- मध्यान्ह-स्नान-संध्या का समय हो गया है| चलो स्नान संध्या कर आयें| लिखित ने भाई के साथ नदी में स्नान किया| अभ्यासवश तर्पण करने के लिए उनके हाथ जैसे ही उठे तो अकस्मात् वे पूर्ण हो गए| उन्हों ने बड़े भाई की तरफ देख कर कहा- भैया! जब यह ही करना था तो आप ने मुझे राजधानी तक क्यूँ दौड़ाया? शंख बोले - अपराध का दंड तो शासक ही दे सकता है; किन्तु ब्रह्मण को कृपा करने का अधिकार है|

Thursday, October 6, 2011

"उत्ती घुन उत्ती च्योनी"

                            हमारे कुमायूं  में एक प्रसिद्द  कहावत है "उत्ती घुन उत्ती च्योनी" जिसका मतलब है वहीँ पर घुटने वहीँ पर ठोड्डी मतलब सिकुड़ कर बहुत कम जगह में गुजारा करना| इस बात पर मुझे बचपन की एक घटना याद आगई| एक दिन की बात है हम बच्चे अपने स्कूल के नजदीक खेल रहे थे, शाम का समय था| एक बृद्ध औरत कहीं से आकर  हमारे स्कूल के सामने आकर बैठ गई| वह कुछ उदास सी लग रही थी| हम सभी बच्चे खेलना छोड़ कर उस बृद्ध औरत के पास चले गए| मेरी ताईजी भी घास लेकर वहीं से घर को जा रही थी| बृद्धा को देख कर वह भी वहीँ आगई| पूछने पर बृद्धा ने रुआं सी आवाज में  बताया कि वह अपने गांव से अपनी बेटी के गांव जा रही है, बेटी का गांव अभी काफी दूर है पर दिन ढलने लग गया है, मेरी यहाँ पर कोई जान पहिचान भी नहीं है, अब में क्या करुँगी रात कहाँ काटूंगी| इसपर मेरी ताईजी ने कहा अगर आप "उत्ती घुन उत्ती च्योनी  कर्नू कौन्छा तो हमार घर हीटो"| मतलब कि अगर आप वहीँ पर ठोड्डी वहीँ पर घुटने करने को तयार हैं तो हमारे घर चलो| बृद्धा हमारे साथ चलने को तयार हो गई| बृद्धा के पास एक छोटी सी पोटली थी जिसको हमने उठाना चाहा पर बृद्धा ने किसी को उठाने नहीं दिया खुद उठा कर हमारे साथ चल कर हमारे घर आगई| चाय पी कर रोटी खाकर जब सोने लगे तो बृद्धा ने बताया कि उसकी पोटली में एक मुर्गी भी है, जो सुबह से भूखी है उसे भी दाना डालना है| बृद्धा ने पोटली खोली और मुर्गी बाहर निकली| हमने कुछ दाने लाकर मुर्गी को डाल दिए, मुर्गी फटा फट दाने चुगने लगी कुछ देर हम उसे दाना चुगते हुए देखते रहे फिर मुर्गी को एक टोकरी से ढक दिया ताकि बिल्ली कोई नुकसान ना पहुंचा सके| सुबह को उठ कर मुह हाथ धो कर चाय पी कर बृद्धा हमें आशीर्वाद देते हुए अपनी बेटी  के गांव को चली गई|

Wednesday, September 28, 2011

आसक्ति के सामान कोई बिष नहीं

                              नास्त्यकिर्तीसमो मृत्युर्नास्ति क्रोधसमो रिपु:|
                         
                         नास्ति निन्दासमं पापं नास्ति  मोहसमासव: ||
                         
                         नास्त्यसुयासमाकिर्तिर्नास्ती कामसमोSनल: |
                         
                         नास्ति रागसम: पशो नास्ति संगसमं विषम  ||


               अकीर्ति के सामान कोई मृत्यु नहीं है| क्रोध के सामान कोई शत्रु नहीं है| निन्दाके सामान कोई पाप नहीं है और मोह के सामान कोई मादक वस्तु नहीं है|  असूया के सामान कोई अपकीर्ति नहीं, काम के सामान कोई आग नहीं है, राग के सामान कोई बंधन नहीं है और आसक्ति के सामान कोई बिष नहीं है|

Wednesday, September 21, 2011

तजुर्बे का फल

बहुत समय पहले की बात है| एक बार एक राजा शिकार खेलने के लिए जंगल में गए| शिकार के पीछे भागते भागते राजा रास्ता भटक गए| भटकते भटकते उन्हें रात हो गई| दूर एक जगह उन्हें रोशनी दिखाई दी वे रोशनी की तरफ बढे| वहां झोपड़ी में एक बुजुर्ग बैठा हुआ मिला| राजाने उस से रास्ता पूछा और कहा कि तुम यहाँ क्या करते हो| बुजुर्ग ने जवाब दिया कि मैं जमीदार की खेती की रखवाली करता हूँ; बदले में मुझे एक पाव आटा रोज का मिलता है| राजा को लगा बुजुर्ग आदमी तजरबे कार है इसको साथ ले चलना चाहिए| राजा ने कहा तुम मेरे साथ चलो में तुम्हें रोज का आधा किलो आटा दे दिया करूँगा| बुजुर्ग तैयार हो गया| दोनों राजमहल में चले गए| बुजुर्ग को एक कमरा देदिया गया| बुजुर्ग वहीँ आराम से रहने लग गया|
एक दिन एक घोड़े का व्यापारी घोड़े बेचने आया| राजा को एक घोडा बहुत पसंद आगया उसने सोचा कि इसमें बुजुर्ग कि भी राय ले ली जाय| उसने बुजुर्ग को बुलाया और कहा ये घोडा कैसा है| बुजुर्ग ने घोड़े के शरीर पर हाथ फेरा और बताया कि घोडा तो बहुत सुन्दर है पर गहरे पानी में घोडा बैठ जाएगा| राजा ने बुजुर्ग की सलाह को मानते हुए घोडा खरीद लिया| कुछ दिन बाद जब राजा उसी घोड़े पर शिकार के लिए जा रहा था तो रास्ते में एक नदी पर करते हुए जब घोडा गहरे पानी में गया तो बैठ गया| राजा को बुजुर्ग की बात याद आगई वह वापस आगया और बुजुर्ग को बुला कर पूछा कि तुन्हें कैसी पता लगा कि घोडा गहरे पानी में बैठ जाएगा| बुजुर्ग ने बताया कि जब में ने घोड़े के शरीर पर हाथ फेरा तो मुझे उसके जिगर में गर्मी महसूस हुई जिस से लगा कि घोडा गहरे पानी में बैठ जाएगा| राजाने घोड़े के व्यापारी को बुलाकर कारण जानना चाहा व्यापारी ने कहा कि बचपन में इस घोड़े कि माँ मर गई थी तो इसे भैंस का दूध पिलाकर पाला है जिस से इसके जिगर में गर्मी हो गई है| राजा ने बुजुर्ग के तजुर्बे से खुश होकर इनाम में उसे एक पाव आटा और दे दिया| अब बुजुर्ग को तीन पाव आटा रोज का मिलने लगा|
एक बार बैठे बैठे राजा के दिमाग में आया कि बुजुर्ग से में अपनी रानी के बारे में क्यों पूछूं|राजा ने बुजुर्ग को बुलाकर कहा कि आप बहुत तजुर्बे कार हैं, आप मेरी रानी के बारे में भी बताएँ बुजुर्ग ने कहा ठीक है आप रानी को बिलकुल नंगा कर के एक कमरे में बैठा दें तो में रानी के बारे में बता सकता हूँ| राजा ने वैसा ही किया रानी को नंगा करके एक कमरे में बैठा दिया गया| बुजुर्ग ने जैसे ही कमरे का दरवाजा खोला रानी अंदर को भाग गई|बुजुर्ग वापस आया और राजा को बताया कि आपकी रानी किसी वैश्या की बेटी लगती है|राजाने अपनी सास को बुलाकर कुछ सख्ती से पूछा तो उसने बताया कि उनकी कोई औलाद नहीं थी इस लिए उन्होंने इस बेटी को एक वैश्या से गोद लिया था|राजा ने बुजुर्ग से पूछा कि तुम्हें कैसे पता चला कि रानी वैश्या की बेटी है तो बुजुर्ग ने जवाब दिया किसी भी नंगी औरत के सामने जाने पर औरत अपने अंगों को छिपा कर सिकुड़ कर बैठ जाती है पर रानी मुझे देखते ही भाग गई थी| राजा ने बुजुर्ग के तजुर्बे से खुश होकर उसको इनाम में एक पाव आटा और देदिया| अब बुजुर्ग को एक किलो आटा रोज का मिलने लग गया|
एक दिन राजा ने बुजुर्ग को बुला कर पूछा कि अब आप मुझे मेरे बारे में कुछ बताइए|बुजुर्ग ने बेझिझक कहा आप तो किसी बनिए के बेटे हो|राजा को सुन कर गस्सा भी आया और हैरानी भी हुई| राजा उसी समय उठा और अपनी माँ के पास गया| तलवार अपनी गर्दन पर रख कर बोला कि माँ सच सच बता में किसका बेटा हूँ नहीं तो मैं अपनी जान दे दूंगा| माँ डर गई और बताया कि तुम्हारे पिताजी राज्य के काम से बाहर ही रहा करते थे|यहाँ एक मुनीम रहता था तुम उसी की औलाद हो|राजाने बुजुर्ग से आकर पूछा कि तुम्हें कैसे पता चला कि में बनिए का बेटा हूँ तो बुजुर्ग ने जवाब दिया कि मैंने आप को लाख लाख टके की एक एक बात बताई और आप ने उसकी कीमत क्या रखी एक पाव आटा? जिस से इस बात का पता चलता है कि आप बनिए के बेटे हो|राजाने बुजुर्ग के तजुर्बे से खुश होकर बुजुर्ग को अपने मंत्री मंडल में शामिल कर लिया|

Wednesday, September 14, 2011

कौन किसका प्रिय है?




वृक्षं क्षीणफलं त्यजन्ति विहगा: शुष्कं सर: सारसा:,

पुष्पं पर्युषितं त्यजन्ति मधुप दग्धं बनान्त्न मृगा:|

निर्द्रव्यं पुरुषं त्यजन्ति गनिका भ्रष्टश्रियं मंत्रिन:,

सर्व: कार्यवशाज्जनोsभिरमते कस्यास्ति को बल्लभ:||


पक्षी फल ना रहने पर वृक्ष को छोड़ देते हैं, सारस जल सूख जाने के बाद सरोबर का परित्याग

कर देते है, भौंरे बासी फूलों को छोड़ देते हैं, मृग दग्ध (जला हुआ) बन को छोड़ देते हैं| धन के ना रहने पर

वेश्या पुरुष को छोड़ देती है तथा मंत्रिगण श्रीहीन राजा को छोड़ देते हैं, सब लोग अपने अपने स्वार्थवश ही प्रेम

करते हैं, वास्तव में कौन किसका प्रिय है?

Monday, September 5, 2011

मुक्त कौन होता है?


सुखदु:खे समे यस्य लाभालाभौ जयाजयौ| इच्छद्वेशौ भयोद्वेगौ सर्वथा मुक्त एव : ||
वालीपलित्संयोगे कार्श्यं वैवर्न्यमेव |कुब्जभावं जरया : पश्यति मुच्यते ||
पूंस्त्वोपघातं कालेन दर्शनोंपरमं तथा |बाधिर्य प्राणमन्दत्वं य:पश्यति स मुच्यते ||




जिसकी दृष्टि में सुख-दु:ख लाभ-हानि, जय पराजय सम है तथा जिसके इच्छा-द्वेष, भय और उद्वेग सर्वथा नष्ट हो गए हैं, वही मुक्त है| बुढ़ापा आनेपर इस शरीर में झुरियां पड़ जाती हैं, सिरके बाल सफ़ेद हो जाते हैं, देह दुबली-पटली एवं कांतिहीन हो जाती है तथा कमर झुकजाने के कारण मनुष्य कुबड़ा-सा हो जाता है| इन सब बातों की ओर जिसकी सदा ही दृष्टि रहती है, वह मुक्त हो जाता है| समय आने पर पुरुषत्व नष्ट हो जाता है, आखों से दिखाई नहीं देता है, कान बहरे हो जाते हैं और प्राणशक्ति अत्यंत क्षीण हो जाती है | इन सब बातों को जो सदा देखता और इनपर विचार करता रहता है, वह संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है|

Sunday, July 31, 2011

बैराग्य

भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद भयं
माने दैन्य भयं बले रिपुभयं रुपे जराया भयं||
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताभ्दयं
सर्व वस्तु भयावहं भुवि नृणा बैराग्य मेवाभयं||
भोग में रोग का भय है,ऊँचे कुल में पतन का भय है, धन में राजा का भय है मान में दीनता का भय है, बल में शत्रुका भय है तथा रूप में बृद्धावस्था का भय है, शास्त्र में वाद-विवाद का भय है, गुण में दुष्ट जनों का भय है तथा शरीरमें कालका भय है| इस प्रकार संसार में मनुष्य के लिए सभी वस्तुएं भयपूर्ण हैं, भय से रहित तो केवल बैराग्य हीहै|

Saturday, July 16, 2011

"हरेला"

       हरेला कुमाऊ  का  एक प्रसिद्ध त्यौहार है जो सावन के महीने मे कर्क संक्रांति को मनाया जाता है| इस दिन से ठीक दस  दिन पहले सात अनाजों को मिला कर बांस की टोकरी, लकड़ी की  फट्टी  या गत्ते का डिब्बा जो भी मौके पर उपलब्ध हो उस मे रेत  बिछा के बोया  जाता है| रोज सुबह शाम ताजा  जल लाकर उसमे डाला जाता है | इस खेती को घर के अँधेरे कोने मे रख्खा जाता है ताकि इसका रंग पीला रहे| कर्क संक्रांति के दिन घर मे   सामर्थ के मुताबिक तरह तरह के पकवान बनाए जाते है| फिर सुबह को पुरोहित जी आ कर हरेले को प्रतिष्ठित करते हैं|फिर पुरोहित जी हरेले को पहले घर मे भगवान्  जी को चढाते  हैं और इष्ट देब के मन्दिर मे चढाते  हैं| जो भी पकवान बनाए होते  है सब का भगवान को भोग लगता है| पुरोहित जी के  भोग लगाने के बाद घर के बड़े बुजुर्ग बच्चों को एक साथ बैठा कर हरेला लगाते हैं | हरेले को दोनों हाथों मे पकड कर पैरों पर लगाते हुए सर की और लेजाकर सर मे रख देते हैं और मुह से बोलते हैं|
           लाख हर्यावा, लाख बग्वाई, लाख पंचिमी जी रए  जागि रए  बची रए |
( भाव तुम लाख हरेला, लाख बग्वाली, लाख पंचिमी तक जीते रहना)
          स्यावक जसी बुध्धि  हो, सिंह जस त्राण हो|
(भाव लोमड़ी की तरह तेज बुध्धि  हो और शेर की तरह बलवान हो )
          दुब जैस पनपिये, आसमान  बराबर उच्च है जाए, धरती बराबर चाकौव है जाए|
(भाव दुब की तरह फूटना , आसमान  बराबर ऊँचा होजाना, धरती के बराबर चौड़ा हो जाना|)  
         आपन गों पधान हए ,सिल पीसी भात खाए|
(भाव अपने गांव का प्रधान  बनना और इतने बूढ़े  हो जाना की खाना भी पीस कर खाना|)
         जान्ठी  टेकि झाड़ी जाये , जी रए  जागि  रए  बची रए  |
(भाव छड़ी ले कर जंगल पानी जाना, इतनी लम्बी उम्र तक जीते रहना जागते रहना.|)
        सब को हरेला  लगाने के बाद भगवान  को लगाया गया भोग सब बच्चों मे बाँट दिया जाता है| लड़के हरेले को अपने कान मे टांग लेते हैं  और लड़कियां हरेले को अपनी धपेली के साथ गूँथ लिया करती हैं|

        आज मुझे भी अपना बचपन याद आ गया है जब हमारी आमा (दादी) जिन्दा हुआ करती थीं | हम छोटे छोटे बच्चे थे जब खाने पीने की कोई चीज घर मे बनती थी तो पहले हम बच्चों को ही दी जाती थी| पर हरेले के दिन जब तक पुरोहित जी नहीं आते थे किसी को कुछ नही मिलता था|जब हम आमा से खाने को मांगते थे तो आमा कहती थीं '"इजा लुह्न्ज्यु कै ओन दे, हर्याव लगे बेर फिर दयूल| कहने का मतलब था कि पुरोहित जी जोकि लोहनी थे उनको आलेने दे हरेला लगाकर फिर  खाने  को दुगी | काश ! कि वो  बचपन फिर लौट आता?
आप सब को हरेले की शुभ कामना |
                                            

Friday, July 8, 2011

नीचा सिर क्यों?

             एक सज्जन बड़े ही दानी थे, उन का हाथ सदा ही ऊँचा रहता था; परन्तु वे किसी की ओर नज़र उठाकर देखते नहीं थे| एक दिन किसी ने उनसे कहा--"आप इतना देते हैं पर आखें नीची क्यों रखते हैं? चेहरा न देखने से आप किसी को पहचान नहीं पाते, इसलिए कुछ लोग आप से दुबारा भी ले जाते हैं"| इसपर उन्हों ने कहा-- भाई! में देने वाला कौन हूँ?
                   
                      देनहार कोई और है देत रहत दिन रैन| 
                      लोग भरम हम पर धरें याते नीचे नैन||
         
            देने वाला तो कोई दूसरा (भगवान) ही है| में तो निमित्त मात्र हूँ| लोग मुझे दाता कहते हैं|  इसलिए शर्म के मारे मैं आखें ऊँची नहीं कर सकता|

Tuesday, June 28, 2011

शरीर मेरा नहीं है

                   अनंत ब्रह्मांडों में अनंत वस्तुएं हैं, पर उन में से तिनके-जितनी वस्तु हमारी नहीं है, फिर शारीर हमारा  कैसे हुआ? यह सिद्धांत है कि जो वस्तु मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह अपनी नहीं होती| शारीर मिलता है और बिछुड़ जाता है, इसलिए वह अपना नहीं है| अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहे| यदि शारीर अपना होता तो यह सदा हमारे साथ रहता और हम सदा इसके साथ रहते| परन्तु शारीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और हम इसके साथ नहीं रहते|

                     एक वस्तु अपनी होती है और एक वस्तु अपनी मानी हुई होती है| भगवान अपने हैं: क्यूंकि हम उन्हीं के अंश हैं| वे हमसे कभी बिछुड़ते ही नहीं| परन्तु शारीर अपना नहीं है,प्रत्युत अपना मान हुआ है| जैसे नाटकमें कोई रजा बनता है, कोई रानी बनती है, कोई सिपाही बनते हैं तो वे सब नाटक करने के लिए माने हुए होते हैं,असली नहीं होते| ऐसे ही शारीर संसार के व्यवहार के लिए अपना मान हुआ है| यह वास्तव में अपना नहीं है, उस परमात्माको तो भुला दिया और जो अपना नहीं है, उस शारीर को अपना मान लिया-यह हमारी बहुत बड़ी भूल है| शारीर चाहे स्थूल हो, चाहे सूक्षम हो,चाहे कारण हो वह सर्वथा प्रकृतिका है| उसको अपना मानकर ही हम संसार में बंधे हैं|

                        परमात्माका अंश होने के नाते हम परमात्मासे अभिन्न हैं| प्रकृतिका अंश  होने के नाते शरीर प्रकृतिसे अभिन्न है| जो अपने से अभिन्न है, उसको अपनेसे अलग मानना और जो अपनेसे भिन्न है उसको अपना, सम्पूर्ण दोषों का मूल है| जो अपना नहीं है, उसको अपना मानने के कारण ही जो वास्तव में अपना है, वह अपना नहीं दीखता|

                        यह हम सब का अनुभव है कि शरीर पर हमारा कोई अधिकार नहीं चलता| हम अपनी इच्छाओं के अनुसार शरीर को बदल नहीं सकते, बूढ़े से जवान नहीं बना सकते, रोगी से निरोगी नहीं बना सकते, कमजोर से बलवान नहीं बना सकते, काले से गोरा नहीं बना सकते, कुरूप से सुन्दर नहीं बना सकते, मृत्यु से बचाकर अमर नहीं बना सकते| हमारे ना चाहते हुए भी, लाख प्रयत्न करनेपर भी शरीर बीमार हो जाता है, कमजोर हो जाता है और मर भी जाता है| जिस पर अपना वश   न चले,उसको अपना मानलेना मूर्खता ही है| (कल्याण)                      


Wednesday, June 22, 2011

सत्य के मार्ग पर

बातें तो सभी सुनते हैं
पर जो अमल करता है
सुनना उसी का सार्थक है
अकेले चलना सीखो 
साथ किसी का मत ढुंढो
ईश्वर सदा तुम्हारे साथ है 
उसका तो युगों-युगों का साथ है 
बनना है तो नदी की लहर समान  बनो 
यह कैसी सतत कार्यशील है देखो 
कभी तुमने इसे स्थिर देखा है 
न तो यह कभी रूकती है 
न कभी मुड़ कर पीछे देखती है 
मार्ग में कितनी ही बाधाएँ हों 
यह निरंतर आगे बढती ही रहती है 
वह कभी असफल हो ही नहीं सकता 
जिस ने खुद को लहरों के समान बना लिया 
सत्य के मार्ग पर वह बढ़ता ही चला जाता है|

Wednesday, June 15, 2011

आलस्य से पतन होता है

                         एक ऊँट था| उसे पूर्व जन्म की सारी बातें ज्ञानत थी| ऊँट होते हुए भी वह कठिन तपस्या में निरत रहता था| उसकी कठिन तपस्या से ब्रह्मा जी बहुत प्रसन्न हो गए और उस से वर मांगने को कहा| ऊँट ने कहा-भगवन! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये की मेरी यह गर्दन बहुत लम्बी हो जय, जिस से मुझे भोजन के लिए इधर उधर भटकना न पड़े और में एक ही स्थानपर बैठा-बैठा सौ योजन दूरतक की वस्तुओं को भी पा लूँ|
                         ब्रह्मा जी ने कहा-"ऐसा ही होगा"| यह मुँह माँगा वर पाकर ऊँट बहुत प्रसन्न हो गया और बन में अपने स्थानपर जाकर आराम से बैठ गया| अब उसे भोजंकी खोज में कहीं जाने की जरुरत नहीं पड़ती थी| उसकी गर्दन सौ योजन लम्बी हो गई थी, वह बैठे-बैठे ही दूर दूर तक अपनी गर्दन घुमाकर भोजन प्राप्त कर लेता था| देववश मुर्ख ऊँट ने ऐसा वर माँगा जिस से अब वह आलस्यकी मूर्ति बन बैठा| कुछ भी करना उसे अच्छा न लगता और  न उसे ऐसी जरुरत ही महसूस होती थी| बैठ-बैठा वह महां आलसी बन गया था| उसका पुरुषार्थ लुप्त हो गया था|
                         ऐसे ही कुछ दिन बीते| एक दिन की बात है वह ऊँट भोजन की खोज में अपनी सौ योजन लम्बी गर्दन इधर-उधर घुमाकर दूर देशमें चार रहा था| उसी समय अकस्मात् जोर की हवा चलने लगी| तूफान सा आने लगा| थोड़ी ही देर में भयंकर वर्ष भी प्रारंभ हो गई| वह ऊँट अपनी गर्दन को एक गुफा के अन्दर डालकर चरने लगा| संयोग से उसी समय एक सियार और सियारन भूख और थकान से व्याकुल हो, साथ ही वर्ष से बचने के लिए उस गुफा के अन्दर प्रविष्ट हुए| वह मांसजीवी  सियार भूख से कष्ट पा रहा था| वहां उसे ऊँट की गर्दन दिखाई पड़ी, फिर क्या था! सियार सियारन दोनों साथ-साथ ऊँट की गर्दन को काट कर खाने लगे| 
                         इधर सौ योजन दूर बैठा उस ऊँट को जब अपनी गर्दन काटने का दर्द महसूस हुआ  तो वह अपनी गर्दन समेटने का प्रयास करने लगा, परन्तु इतनी लम्बी गर्दन समेटना संभव नहीं था| इधर सियार सपरिवार बड़ी मजे से गर्दन काट-काट कर खाए जा रहा था| गर्दन के काट जाने से ऊँट की मृत्यु हो गई| जब थोड़ी देर बाद वर्षा बंद हो गई तोवह सियार परिवार गुफा से बहार निकल कर चला गया|
                        इस प्रकार आलस्य के कारन ऊँट की मृत्यु हो गयी| अत: मनुष्य को आलस्य और प्रमाद का त्याग करके सदैव पुरुषार्थी बना रहना चाहिए| जो व्यक्ति जितेन्द्रिय और दक्ष है उसकी सदा विजय होती है और वह अपने प्रयत्न में सदा सफल होता है|                                  (कल्याण से)

Thursday, June 9, 2011

कोसलराज

          पुराने समय की बात है  काशी और कोसल दो पडोसी राज्य थे | काशी नरेश को कोसल के राजा की चारों तरफ फैली हुई कीर्ति सहन नहीं होसकी| काशी नरेश ने कोसल राज्य पर आक्रमण कर दिया| इस लड़ाई मे काशी  नरेश की जीत हुई| कोसल के राजा की हार हो गई| हार जाने के बाद कोसल राजा जान बचाने जंगल मे चले गए| कोसल राज्य की जनता अपने राजा के बिछुड़ ने पर काफी नाराज थी | काशी  के राजा को अपना राजा मानने को तैयार नहीं थी | उन को कोई सहयोग भी देने को तैयार नहीं थे | प्रजा के इस असहयोग के कारन काशी  नरेश काफी नाराज थे| उन्हों ने कोसल राज को ख़तम करने की घोषणा कर दी और कोसल राज  को ढूढने वाले को सौ स्वर्ण मुद्राएँ देने का ऐलान कर दिया|
            काशी  नरेश  की इस घोषणा  का कोई असर नहीं हुआ| धन के लालच में कोई  भी अपने धार्मिक नेता को शत्रु के हवाले करने को तैयार नहीं था | उधर कोसल राज बन मे इधर उधर भटकते फिर रहे थे | बाल बड़ेबड़े हो चुके थे बालों में जटा  बन चुकी थी | शरीर काफी दुबला पतला हो चुका था| वे एक बनवासी  की तरह दिखने लगे थे| एक  दिन कोसलराज बन मे घूम रहे थे | कोई आदमी उन के पास आया और बोला कि यह जंगल कितना बड़ा है? कोसल को जाने वाला मार्ग किधर है और कोसल कितनी दूर है? यह सुन कर कोसल नरेस चौंक गए | उन्हों ने राही  से पूछा कि वह कोसल क्यों जाना चाहता है?
          पथिक ने उत्तर दिया कि मे एक ब्यापारी हूँ | ब्यापार करके जो कुछ कमाया था उसको लेकर अपने घर जा रहा था | सामान से लदी नाव नदी मे डूब चुकी है| मे कंगाल हो गया हूँ | मांगने की नौबत आ चुकी है अब घर घर जाकर कहाँ भिक्षा मांगता फिरुगा| सुना है कि कोसल के राजा बहुत दयालु और उदार हैं| इसलिए सहायता के लिए उन के पास जा रहा हूँ|
           कोसलराज ने पथिक से कहा आप दूर से आये हो और रास्ता बहुत जटिल है चलो मे आप को वहां तक पहुंचा  आता हूँ | दोनों वहां से चल  दिए| कोसल  राज  ब्यापारी को कोसल लेजाने के बजाय काशिराज की सभा मे ले गए| वहां उन को अब पहचानने वाला कोई नहीं था | वहां पहुँचने पर काशिराज ने उनसे पूछा आप कैसे पधारे हैं? कोसलराज ने जवाब दिया कि मे कोसल का राजा हूँ| मुझे पकड़ने के लिए तुमने पुरस्कार घोषित किया है| यह पथिक मुझे पकड़कर यहाँ लाया है इस लिए इनाम की सौ स्वर्ण मुद्राएँ इस पथिक को  दे  दीजिये | सभा मे सन्नाटा छा गया | कोसल राज की सब बातें सुनकर काशिराज  सिहासन से उठे और बोले महाराज!आप जैसे धर्मात्मा, परोपकारी को पराजित करने की अपेक्षा आप के चरणों पर आश्रित होने का गौरव कहीं अधिक है| मुझे अपना अनुचर स्वीकार करने की कृपा कीजिये | इस प्रकार  ब्यापारी को मुह माँगा धन मिल गया और कोसल और काशी  आपस मे मित्र राज्य बन गए|                              

Tuesday, May 31, 2011

" इश्वर कहाँ रहता है, किधर देखता है और क्या करता है"

            किसी गांव में  एक गरीब ब्राहमण रहता था| वह लोगों के घरों में पूजा पाठ कर के अपनी जीविका चलाता  था| एक दिन एक राजा ने इस ब्राहमण को पूजा के लिए बुलवाया| ब्राहमण ख़ुशी ख़ुशी राजा के यहाँ चला गया | पूजा पाठ करके जब ब्राहमण अपने घर को आने लगा तो राजा ने ब्राहमण से पूछा "इश्वर कहाँ रहता है, किधर देखता है और क्या करता है"? ब्राहमण कुछ सोचने लग गया और फिर राजा से कहा, महाराज मुझे कुछ समय चाहिए इस सवाल का उत्तर देने के लिए| राजा ने कहा ठीक है, एक महीने का समय दिया| एक महीने बाद आकर  इस सवाल का उत्तर दे जाना | ब्राहमण इसका उत्तर सोचता रहा और घर की ओर चलता रहा परन्तु उसके कुछ समझ नहीं आरहा था| समय बीतने के साथ साथ ब्राहमण की चिंता भी बढ़ने लगी और  ब्राहमण उदास रहने लगा| ब्रह्मण का एक बेटा था जो काफी होशियार था उसने अपने पिता से उदासी का कारण  पूछा | ब्राहमण ने बेटे को बताया कि राजा ने उस से एक सवाल का जवाब माँगा है कि इश्वर  कहाँ रहता है;किधर देखता है,ओर क्या करता है ? मुझे कुछ सूझ नहीं रहा है| बेटे ने कहा पिताजी आप मुझे राजा के पास ले चलना  उनके सवालों का जवाब मै दूंगा| ठीक एक महीने बाद ब्राह्मण  अपने बेटे को साथ लेकर राजा के पास गया और कहा कि आप के सवालों के जवाब मेरा बेटा देगा| राजा  ने  ब्राहमण के बेटे से पूछा बताओ इश्वर कहाँ रहता है?
            ब्राहमण के बेटे ने कहा राजन ! पहले अतिथि का आदर सत्कार किया जाता है उसे कुछ खिलाया पिलाया जाता है, फिर उस से कुछ पूछा जाता है| आपने तो बिना आतिथ्य किए ही प्रश्न पूछना शुरू  कर दिया है| राजा इस बात पर कुछ लज्जित हुए और  अतिथि के लिए दूध लाने  का आदेश दिया| दूध का गिलास प्रस्तुत किया गया| ब्राहमण बेटे ने दूध का गिलास हाथ मै पकड़ा  और  दूध में  अंगुल डाल कर घुमा कर बार बार दूध से बहार निकाल  कर देखने लगा| राजा ने पूछा ये क्या कर रहे हो  ? ब्राहमण पुत्र बोला सुना है दूध में  मक्खन  होता है| मै वही देख रहा हूँ कि दूध में  मक्खन  कहाँ है? राजा ने कहा दूध मै मक्खन  होता है,परन्तु वह ऐसे  दिखाई नहीं देता| दूध को जमाकर दही बनाया जाता है  फिर उसको मथते है तब मक्खन  प्राप्त होता है| ब्राहमण बेटे ने कहा महाराज यही आपके सवाल का जवाब है|            परमात्मा प्रत्येक  जीव के अन्दर बिद्यमान  है | उसे पाने के लिए नियमों का अनुष्ठान करना पड़ता  है | मन से ध्यान द्वारा अभ्यास से आत्मा में  छुपे हुए परम देव पर आत्मा के निवास का आभास होता है| जवाब सुन कर राजा खुश  हुआ ओर कहा अब मेरे दूसरे सवाल का जवाब दो| "इश्वर किधर देखता है"? ब्राहमण के बेटे ने तुरंत एक मोमबत्ती मगाई और उसे जला कर राजा से बोला महाराज यह मोमबत्ती किधर रोशनी करती है? राजा ने कहा इस कि रोशनी चारो  तरफ है| तो ब्राहमण  के बेटे ने कहा यह ही आप के दूसरे सवाल का जवाब है| परमात्मा सर्वदृष्टा  है और  सभी प्राणियों के कर्मों को देखता है| राजा ने खुश होते हुए कहा कि अब मेरे अंतिम सवाल का जवाब दो  कि"परमात्मा क्या करता है"? ब्राहमण के बेटे ने पूछा राजन यह बताइए कि आप इन सवालों को गुरु बन कर पूछ रहे हैं या शिष्य बन कर? राजा विनम्र हो कर बोले मै शिष्य बनकर पूछ रहा हूँ| ब्राहमण बेटे ने  कहा वाह महाराज!आप बहुत अच्छे शिष्य हैं| गुरु तो नीचे  जमीन पर खड़ा  है और  शिष्य सिहासन पर विराजमान है| धन्य है महाराज आप को और आप के शिष्टचार को | यह सुन कर राजा लज्जित हुए वे अपने सिहासन से नीचे उतरे और ब्राहमण बेटे को सिंहासन पर बैठा कर पूछा अब बताइए  इश्वर क्या करता है? ब्राहमण बेटे ने कहा अब क्या बतलाना रह गया है| इश्वर यही करता है कि राजा को रंक और रंक को राजा बना देता है| राजा उस के जवाब सुन कर काफी प्रभावित हुआ और ब्राहमण बेटे को  अपने दरबार में  रख लिया| इस प्रकार परमात्मा प्रत्येक जीव के ह्रदय में  आत्मा रूप से विद्यमान रहता है| परमात्मा  के साथ प्रेम होने पर सभी प्रकार के सुख एश्वर्य की प्राप्ति होती है परमात्मा के बिमुख जाने पर दुर्गति होती है|

Tuesday, May 24, 2011

कीटसे ब्रह्मपदतक की यात्रा

          कर्म सिद्धांत के अनुसार प्राणी के जीवन में कोई भी अचिन्त्य घटना घट सकती है| ब्रह्मस्वरूप  विप्रवर  कृष्णद्वैपायन कहीं जा रहे थे| अनायास उनकी दृष्टि एक कीट पर पड़ी, जो गाड़ी की लीक पर द्रुत गति से भाग रहा था| सम्पूर्ण प्राणियों की भाषा का ज्ञान रखने वाले व्यासजीने उस कीट को रोक कर पूछा--तुम इतने उतावले और भयभीत हो कर कहाँ भागे जा रहे हो? तुम्हें किसका भय है? घबराए हुए उस कीट ने आर्त स्वर में कहा-"महामते! वह जो बैलगाड़ी आ रही है, उसकी भयंकर गडगडाहट मैं स्पष्ट सुन रहा हूँ! देखिये न,बैलों पर चाबुक की मार पड़ने से भारी बोझ के कारण वे हांफते हुए निकट ही आ रहे हैं| में तो गाड़ी पर बैठे मनुष्योंके भी नाना प्रकार के वार्तालाप सुन रहा हूँ| अपने प्राणों पर आनेवाले दारुण भय ने मेरे ह्रदय में खेद उतपन्न कर दिया है| प्राणिमात्रके लिए मृत्युसे बढ़कर और कोई दुखदाई अवसर नहीं होता, यह अक्षुण सत्य है| कहीं ऐसा न हो कि में सुखके स्थान पर दुःख में पड़ जाऊँ|
          कीट के इन बचनों को सुनकर महामुनि व्यासजीने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा-"क्या कहा तुमने? सुख! तुम्हें सुख कहाँ है? इस तिर्यक अधम कीटयोनिमें शब्द-स्पर्श-रस-गंध-जैसे भोगोंसे वन्चित तुम्हारा तो मर जाना ही श्रेयस्कर है|
          मर्मभरी वाणी में कीटने  कहा-"ऐसा न कहिए प्रभो! मुझे इसी योनी में सुख मिल रहा है| में जीवित रहना चाहता हूँ| इस शारीर में उपलब्ध भोगों से ही मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ| में पूर्व जन्म में एक धनी शूद्र था| ब्राहमणों के प्रतिमेरे मन में आदर का भाव न था, मैं कंजूस, क्रूर और ब्याजखोर था| सब से तीखे बचन बोलना, लोगों को ठगना, झूठ बोलकर धोखा देना, दूसरे के धन को हड़प लेना मेरा स्वभाव बन गया था|मैं अतिथियों को बिना भोजन करे अकेले ही भोजन कर लेता था| दूसरे की समृद्धि देख कर ईर्ष्यावश जलता रहता था, दुसरे के अच्छे कामों में बाधा डालता था,इस प्रकार में बड़े ही निर्दई और धूर्त था पर मैं ने उस जन्म में केवल अपनी बूढी माताकी सेवाकी तथा एक दिन अनायास घर आए अतिथि का सत्कार किया था| उसी पुण्य के प्रभाव से मुझे पूर्व जन्म की समृति अभीतक बनी है| तपोधन! क्या मुझे किसी शुभ कर्म द्वारा सद्गति प्राप्त हो सकती है?       
          क्षुद्रजीव! संतों के दर्शनसे ही पुण्य की प्राप्ति हो जाती है; क्योंकिवे तीर्थ रूप होते हैं; तीर्थ सेवन का फल तो यथाकाल  होता है| किन्तु संतोंके दर्शनसे तत्काल ही फल मिलता है| अत: मेरे दर्शन मात्रसे तुम्हारा उद्धार हो गया समझो|
          अगर तुम्हें अपने किए पर पश्चाताप हो रहा है तो निसंदेह तुम्हें इस योनी से मुक्ति मिल जाएगी, तुम शीघ्र ही मानवयोनी  में उत्पन्न होओगे|
          व्यासजी के इन बचनों को आग्यास्वरूप शिरोधार्य कर वह बीच मार्ग में ही पड़ा रहा| छकड़े के विशाल पहिये के नीचे दब कर उसने प्राण त्याग दिए! जीवन में मृतु ही एकमात्र गूढ़ एवं प्रतक्ष सत्य है|
          तत्पश्चात वह कीट क्रमश: शाही, गोधा, सूअर, मृग, पक्षी, चंडाल आदि योनियों को भोगता हुआ राजपरिवार में राजकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ| इस योनी में पुन: व्यास जी की उस से भैट हुई| पूर्व जन्म की स्मृतिके फलस्वरूप वह ऋषिके चरणोंमें गिरकर बोला- भगवन!आप की अनुकम्पा से मैं तुच्छ कीट से राजकुमार हो गया हूँ| अब मेरे लिए सभी प्रकार के सुख-साधन उपलब्ध हैं| अब मुझे वह स्थान मिलगया है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है|
         ऊँठ और खच्चरों से जुती हुई गाड़ियाँ मुझे ढोती हैं| मैं भाई-बंधुओं और अपने मित्रों के साथ मांस-भक्षण करता हूँ| महाप्रज्ञ! आपको नमस्कार है| मुझे आज्ञा दीजिए, आप की क्या सेवा करूँ|
        राजकुमार से इस प्रकार के बचन सुनकर दीर्घ नि:स्वास लेते हुए व्यासजी ने कहा- राजन! अभी तक कीटयोनी  के घृणित व्यवहार तुम्हारी वासना से चिपके हैं| तुम्हारे पूर्व जन्मों के पाप-संचय अभी सर्वथा नष्ट नहीं हुए हैं| तुमने मांस भक्षण की निंदनीय प्रवृति अभी छोड़ी नहीं है|
         इन प्रेरणादाइ  बचनों को सुनकर राजकुमार बन में जाकर उग्र तपस्या में  लीन हो गया, जिसके  प्रभाव से वह अगले जन्म में ब्रह्मवेताओं के श्रेष्ट कुल में उत्पन्न हो कर ब्रह्मपद पाने में समर्थ हुआ|
         कीट ने स्वधर्म का पालन कियाथा, उसी के फल स्वरुप उसने सनातन ब्रह्मपद प्राप्त कर लिया| उत्तम कर्म करने वाला उत्तम योनी में और नीच कर्म करने वाला पापयोनि में जन्म  लेता है| मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे फल भोगना पड़ता है| इसलिए उत्तम धर्म का ही सर्वदा आचरण करना चाहिए|
                                                                                ( कल्याण में से )

Sunday, May 15, 2011

सुन्दर का ध्यान कहीं सुन्दर

                             श्री गोपाल सिंह नेपाली जी की एक रचना सुन्दर का  ध्यान कहीं सुन्दर|


                  श्री गोपाल सिंह नेपाली का जन्म बिहार  प्रदेश के चंपारण जिले के बेतिया ग्राम में हुआ था| पत्रकारिता के अतिरिक्त नेपाली जी ने काव्य सेवा भी की| उनकी आरंभिक  कविताएँ छायावादी प्रभाव से समन्वित है| किन्तु कालांतर में उन्हों ने स्वतंत्र-पथ का निर्माण किया| "उमंग", "रागनी" ,"पंछी" उनके प्रसिद्द कविता संग्रह हैं| उनकी कविताओं में प्रकृति-प्रेम, जीवन की मस्ती तथा भावात्मक एकता की मधुर महक मिलती है|

सौ-सौ   अंधियारी   रातों   से  तेरी   मुस्कान   कहीं   सुन्दर 
मुख से मुख-छवि पर लज्जा का, झीना परिधान  कहीं सुन्दर 
                                                 तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
दुनियां देखी पर कुछ न मिला,  तुझ को देखा सब कुछ पाया 
संसार-ज्ञान  की  महिमा से, प्रिय  की  पहचान  कहीं  सुन्दर 
                                              तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
जब   गरजे    मेघ,  पपीहा   पिक,   बोलें-डोलें   गुलजारों   में
लेकिन  काँटों  की  झाड़ी  में, बुलबुल  का  गान  कहीं  सुन्दर 
                                              तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
संसार  अपार  महासागर,   मानव  लघु-लघु   जलयान  बने 
सागर  की  ऊँची  लहरों  से,  चंचल  जलयान   कहीं  सुन्दर 
                                             तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
तू  सुन्दर  है  पर  तू  न  कभी,  देता  प्रति-उत्तर  ममता  का
तेरी   निष्ठुर   सुन्दरता   से,   मेरे   अरमान   कहीं    सुन्दर 
                                             तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
देवालय  का   देवता  मौन,  पर  मन  का  देव  मधुर   बोले
 इन मंदिर-मस्जिद-गिर्जा से, मन का भगवान कहीं सुन्दर 
                                            तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
शीतल  जल  में  मंजुलता  है, प्यासे  की  प्यास  अनूठी  है 
रेतों   में   बहते  पानी  से,  हिरिणी   हैरान   कहीं    सुन्दर 
                                        तेरी  मुस्कान कहीं सुन्दर
सुन्दर है फूल,बिहग, तितली, सुन्दर हैं मेघ, प्रकृति सुन्दर 
पर जो आँखों में है  बसा उसी सुन्दर का  ध्यान  कहीं  सुन्दर  
                                           तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर

Friday, May 6, 2011

कर्म ही कर्तव्य है

                 मानव-जीवन पाकर भी, भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य समझकर भी मनुष्य दिग्भ्रमित क्यों रहता है? क्या जीवन उसे उसकी इच्छा से प्राप्त हुआ है? अमुक वंश या अमुक जाति में जन्म पाना मनुष्य के बस की बात नहीं है| फिर क्यों न मनुष्य जहाँ प्रभु की इच्छासे जीवन जीने का स्थान मिला, उसे ही अपनी कर्मभूमि समझ अपने योग्यतानुसार प्रभु कार्य में लगाकर अपना जीवन सफल करने का प्रयास करे|
                मनुष्य को जो कुछ भगवान ने दिया है उसके प्रति आभार ब्यक्त करने की अपेक्षा जो नहीं मिला उसे लेकर वह चिंतित तथा दु:खी रहता है|  भौतिक सुख-साधनों को सर्वोपरि  समझ कर परमार्थ को भूल जाता है| अपने जिम्मे आये कार्यों  को करना नहीं चाहता| केवल भोग भोगना चाहता है, कितनी बड़ी मूर्खता  करता है|
                एक किसान हल चलाता  और खेत की मिटटी को नरम कर उसमें बीज  डालता है| उसके पश्चात् प्राकृत या परमात्मा के अनुग्रह से फसल होती है तथा फल भी प्राप्त होता है| यदि भाग्य में नहीं होता तो वर्षा न होने या कम होने से लाभसे वंचित भी रह जाता है| मगर यदि मेहनत नहीं करेगा, बीज  नहीं बोएगा तो  कितनी ही अच्छी वर्षा से फल लाभ     दायक नहीं हो सकता | ईश्वर की सहायता भी तभी फली भूत होती है जब हम ने अपना कार्य किया हो| केवल आशावादी बनकर कर्म-विमुख जीवन निरर्थक है| बिना बीज बोए तो अनपेक्षित झाड़-झंखाड़ ही पैदा होंगे और शेष जीवन उन झाड़ियों के उखाड़ फेंकने में ही बीत जाएगा| (कल्याण में से)

Saturday, April 30, 2011

भाई बहन

श्री गोपाल सिंह "नेपाली" जी की एक रचना,  भाई बहन|

तू चिंगारी बनकर उड़ री,  जाग- जाग में ज्वाला बनूँ :
तू   बन  जा  हृहराती  गंगा,  मैं   झेलम  बेहाल   बनूँ |

आज  बसंती  चोला  तेरा,  मैं  भी सज लूं,  लाल  बनूँ :
तू  भगिनी  बन क्रांति कराली, मैं भाई  विकराल बनूँ |

यहाँ   न   कोई   राधा   रानी,   ब्रिन्दावन ,  बंशीवाला:
तू  आँगन  की ज्योति बहन री, मैं  घर का पहरेवाला |

बहन  प्रेम  का पुतला हूँ  मै, तू  ममता  की गोद बनी:
मेरा  जीवन  क्रीडा-कौतिक, तू  प्रत्यक्ष  प्रमोद  बनी|

मैं   भाई   फूलों   में  भूला,  मेरी  बहन  विनोद  बनी: 
भाई की गति,मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी|

यह  अपराध   कलंक  सुशीले,  सारे  फूल जला  देना:
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना| 

भाई  एक  लहर  बन आया, बहन  नदी  की  धारा  है:
संगम   है,   गंगा   उमड़ी   है,  डूबा  कुल  किनारा  है |

यह  उन्माद,  बहन  को  अपना  भाई  एक  सहारा है :
कह अलमस्ती ,एक  बहन ही  भाई  का  ध्रुबतारा  है |

पागल  घडी,  बहन-भाई  है,  वह  आजाद  तराना  है :
मुसीबतों  से  बलिदानों  से  पत्थर को  समझाना  है|

Friday, April 22, 2011

कौसानी


             कौसानी उत्तराखंड का एक पर्यटक स्थल है| यह अल्मोड़े से ५३ की: मी: की  दूरी पर अल्मोड़ा बागेश्वर मोटर मार्ग पर स्थित है| कौसानी समुन्द्र ताल से १८९० मी:  की ऊंचाई पर है| यहाँ से ३५० की:मी: चौड़ी हिमालय पर्वत श्रंखला दिखाई देती है| उत्तराखंड में बहुत कम जगहों से ऐसे नज़ारे देखने को मिलते हैं| यहाँ से नंदा देवी, नंदाकोट, पंच्सुली, कमेट आदि कई जगप्रसिद्ध चोटियाँ  एक साथ दिखाई देती हैं| कौसानी एक ऊँची पहाड़ी में स्थित है, इस के एक तरफ सोमेश्वर की घाटी है और दूसरी तरफ बैजनाथ (कत्यूर) की घाटी है| जब १९२९ में महात्मा गांधी जी बागेश्वर में जनसमूह को संबोधन करने के लिए आये तो उन्होंने कौसानी के अनासक्ति आश्रम में कुछ समय बिताया| जहाँ इस समय कस्तूरबा गांधीजी का संग्रहालय है| उस समय गाँधी जी ने कौसानी को स्विट्जरलेंड ऑफ़ इंडिया का नाम दिया था| यहाँ से सूर्योदय और सूर्यास्त का का नजारा देखते ही बनता है ऐसे लगता है जैसे सारे हिमालय को सोने की चादर से ढक दिया हो|
              
               हिंदी के मशहूर कवि सुमित्रा नंदन पन्त जी की यह जन्म स्थली है| जहा पर उन्हों ने अपना बचपन बिताया|  पन्त जी जिस घर में पैदा हुए थे वहां अब उनका संग्रहालय बना दिया गया है| पन्त जी जिस स्कूल में पड़ते थे वह आज भी उसी तरह चल रहा है|
                 
                कौसानी में एक लक्ष्मी आश्रम (सरला देवी आश्रम) भी है| जो बस स्टेसन से १ की: मी: की दूरी पर स्थित है| यह आश्रम एक अंग्रेज औरत ने बनाया था जो लन्दन की मूल निवासी थी| जिस का नाम कैथरीन मेरी हेल्व्मन था| वह जब १९४८ में हिंदुस्तान घूमने आई तो गाँधी जी से प्रभावित होकर हिंदुस्तान में ही रह गयी| कौसानी को उन्हों ने अपने करम स्थली के रूप में चुना| यहाँ उन्हों ने लक्ष्मी आश्रम के नाम से एक बोर्डिंग स्कूल चलाया जिस में लड़कियों को सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि सिखाया जाता है| श्री कृष्ण जन्मा अष्टमी को यहाँ बहुत भारी मेला लगता है|

                  कौसानी में एक उत्तराखंड टी इस्टेट भी है जो कौसानी से ६ की:मी: की दूरी पर बैजनाथ की तरफ को है| यहाँ की चाय काफी खुशबूदार होती है| यहाँ की चाय विदेशो को जाती है जिसकी विदेशों में काफी मांग है| आम तुलना में यहाँ की चाय की कीमत बहुत ज्यादा है|   

Tuesday, April 12, 2011

स्याल्दे बिखोती



            बैशाखी भारत के सभी राज्यों में अलग अलग नाम से मनाई जाती है| हमारे उत्तराखंड में बैशाखी "बिखोती" के नाम से जानी जाती है| उत्तराखंड में हर एक संक्रांति को कोई मेला या त्यौहार होता है| बैशाख के महीने की संक्रांति को बिश्वत  संकरान्ति के नाम से जाना जाता है| इस दिन कुमाऊ में स्याल्दे  बिखोती का मेला लगता है| वैसे तो बिखोती को संगमों पर नहाने का भी रिवाज है| लोग बागेश्वर, जागेश्वर आदि संगमों पर नहाने जाते हैं| इस दिन इन संगमों पर भी अच्छा खासा मेला लग जाता है| इस दिन तिलों से नहाने का भी रिवाज है| तिल पवित्र होते हैं और हवन यज्ञ में प्रयोग होते हैं| कहते हैं कि साल भर में जो विष हमारे शरीर में जमा हुआ होता है इस दिन तिलों से नहाने पर वह विष झड जाता है|
           कुमाऊ में यह मेला द्वाराहाट में लगता है जो रानीखेत से २८ कि: मी: कि दुरी पर है| द्वाराहाट में पांडवों के ज़माने के कई मंदिर है, जो सभी पास पास हैं| इन मंदिर समूहों के बीच में एक पोखर (ताल ) भी है जहाँ यह मेला लगता है| इस मेले में भोट,नेपाल आदि जगहों से भी लोग आते हैं| यह मेला ब्यापारिक दृष्टि से भी काफी मशहूर है| लोगों को यहाँ पर अपनी जरुरत कि चीजों को खरीदने का मौका मिलता है|
            इस मेले में लोगों को अपनी कला का प्रदर्शन दिखने का भी अच्छा मौका मिलता है| नए कलाकार यहाँ आकर अपनी रचनाओं को गा गा कर सुनाते हैं,इस से लोगों का भी मनोरंजन हो जाता है| इस मेले में कई मशहूर कलाकार भी अपनी कला का प्रदर्शन कर के लोगों का मन मोह लेते हैं| इस सबंध में कुमाऊ के मशहूर गायक स्व: गोपाल बाबु गोश्वामी ने एक गीत गया है जिस के बोल इस तरह हैं|
            अलघतै  बिखोती मेरी दुर्गा हरे गे| सार कौतिका चनें मेरी कमरा पटे गे|
भाव:-इस बिखोती में मेरी दुर्गा खो गई है, सारे मेले में ढूढ़ते मेरी कमर थक गई है|           
           एक और गायक ने गाया है|
           हिट साईं कौतिक जानूं  द्वाराहटा | ओ भीना कसिका जानू द्वाराहटा |
भाव:-जीजा अपनी साली से मेले में चलने को कहता है पर साली अपनी मज़बूरी जताती है कैसे जाऊं मेले में|
         द्वाराहाट वैसे तो रानीखेत तहसील का एक छोटा सा क़स्बा है| यहाँ पर डिग्री कालेज है, पोलिटेक्निक है और इंजीनियरिग कालेज भी है| यहाँ से मात्र ६ कि: मी: की दूरी पर माता दूनागिरी जी का प्रसिद्द मंदिर है| जो दूनागिरी पर्वत पर बिराजमान है| कहते हैं कि इस द्रोणागिरी पर्वत पर अभी भी संजीवनी बूटी मिलती है परन्तु उसे ढूढने के लिए कोई सुशेन वेद्य चाहिए| 

                                                        
बैसाखी की हार्दिक शुभकामनाये|

फोटो साभार : google.com

Saturday, April 2, 2011

नवसंवत्सर २०६८ की हार्दिक शुभकामनाएँ|



              विक्रम संवत का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है, जो इस वर्ष ४ अप्रेल को है| भारत में कालगणना  इसी दिन से प्रारंभ हुई| ऋतु मास  तिथि एवं पक्ष आदि की गणना भी यही से शुरू होती है| विक्रमी संवत के मासों के नाम आकाशीय नक्षत्रों के उदय अस्त से सम्बन्ध रखते हैं| वे सूर्य चन्द्र की गति पर आश्रित हैं| विक्रमी संवत पूर्णत: वैज्ञानिक सत्य पर स्थित हैं| विक्रम संवत सूर्य सिद्धांत पर चलता है|
              अर्थशास्त्र में काल गणना की इकाई "पल" है, एक पलक झपकने में जितना समय लगता है उसे पल कहते हैं|
              नवसंवत्सर बसंत ऋतु में आता है|  बसंत में सभी प्राणियों को मधुरस प्रकृति से प्राप्त होता है| काल गणना का सम्पूर्ण उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रख कर किया जाता है| चित्रा नक्षत्र से आरम्भ होने पर इस मास का नाम चैत्र  रखा गया| विशाखा नक्षत्र से बैशाख,जेष्ठा नक्षत्र से जेठ ,पुर्वाषाढा से आषाढ़ , श्रवन नक्षत्र से श्रवन , पूर्वभादरा से भादव, अश्वनी नक्षत्र से असोज (आश्विन), कृतिका से कार्तिक, मृगशिरा से मार्गशीर्ष; पुष्य से पौष, मघा  से माघ और पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र से फाल्गुन नामों का नामकरण हुआ|
            सूर्य का उदय होना और अस्त होना दिन रात का पैमाना बन गया| चन्द्रमा  का घटने बढ़ने का आशय चन्द्रमा  का पृथवी से दूरी घटने बढ़ने से है| इसके आधार पर ही शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष और महीने का अस्तित्व आया| दिन रात में २४ होरा होते हैं| प्रत्येक होरा का स्वामी सूर्य,शुक्र,बुध ,चन्द्र शनि, गुरु और मंगल को माना गया है| सूर्योदय के समय जिस गृह की होरा होती है उसदिन वही वार होता है| चन्द्र की होरा में चन्द्रवार (सोमवार) मंगल की होरा में मंगलवार, बुध की होरा में बुधवार, गुरु की होरा में गुरुवार, शुक्र की होरा में शुक्रवार, शनि की  होरा में शनिवार और सूर्य की होरा में रविवार होता है| इस प्रकार सातों दिवसों की गणना की गई है|
            हमारे उत्तराखंड में नवसंवत्सर के मौके पर लोग अपने घरों की लिपाई पोताई करके घर की साफ सफाई करते हैं| ऐपन(अलप्ना) निकालते है| हमारे यहाँ नवसंवत्सर का नाम पुरोहित से ही सुनने का रिवाज है| पुरोहित के मुंह से ही नवसंवत्सर का नाम सुनना शगुन माना जाता है|
            सभी ब्लॉग प्रेमियों को नवसंवत्सर २०६८  की हार्दिक शुभकामनाएँ|

Tuesday, March 22, 2011

भिटौली

             भिटौली का मतलब है मिलना या भेंट करना| पुराने ज़माने में उत्तराँचल के दूर दराज के गांवों में जाने का कोई साधन नहीं था| लोग दूर दूर तक पैदल ही जाया करते थे| एक दिन में १५-२० मील  का सफ़र तय कर लेते थे| रास्ते भी जंगलों के बीच में से हो कर जाते थे| जंगलों में अनेक प्रकार के जानवर भी हुआ करते थे| उस ज़माने में बच्चों की शादी छोटी उम्र में ही कर देते थे| नई ब्याही लड़की अकेले अपने मायके या ससुराल नहीं जा सकती थी| कोई न कोई पहुँचाने वाला चाहिए था| इस तरह कभी तो ससुराल वाले लड़की को मायके भेजते नहीं थे और कभी कोईपहुंचाने वाला नहीं मिलता था| हमारे पहाड़ में चैत के महीने को काला महिना मानते हैं और नई ब्याही लड़की पहले चैत के महीने में ससुराल में नहीं रहती है| उसको मायके में आना होता है| इस तरह ससुराल जाते समय भाई अपनी बहिन को या पिता अपनी बेटी को कुछ न कुछ उपहार दे कर ससुराल को बिदा करते थे| पहले चैत के बाद लड़की को जब कोई पहुँचाने वाला मिलता तो ही वह मायके आ सकती थी| कई बार तो लड़की सालों तक भी अपने मायके नहीं जा पाती थी| उसको अपने मायके की नराई तो बहुत लगती थी पर ससुराल में रहने को बाध्य  थी| पुराने बुजुर्गों ने इस बिडम्बना को दूर करने के लिए एक प्रथा चलाई| जिस का नाम भिटौली रक्खा गया| इस प्रथा में भाई हर चैत के महीने में बहिन के ससुराल जाकर उसको कोई उपहार भेंट  कर के आता है| जिस में गहने कपडे और एक गुड की भेली होती है| गुड की भेली को तोड़  कर गांव में बाँट दिया जाता है, जिस से पता चलता है की फलाने की बहु की भिटौली आई है| एक बार एक भाई भिटौली लेकर अपनी बहिन के पास गया| बहिन उस समय सोई हुई थी तो भाई ने उसे जगाने के बजाय उसके जागने का इंतजार करना ठीक समझा,और वह वहीँ बैठा उसके जागने का इंतजार करने लगा | भाई के जाने का समय हो गया पर बहिन नहीं जागी| भाई उसकी भिटौली उसके सिरहाने रख कर एक चरेऊ ( गले में डालने वाली माला ) उसके गले में लटका गया और खुद गांव को वापस आ गया| बहिन की जब नींद खुली तो देखा कि उसके गले में चरेऊ लटक रहा है, भिटौली सिरहाने रक्खी है पर भाई का कोई पता नहीं है| वह भाई को आवाज देती बाहर आई | भाई को कहीं भी न देख कर उसके मन में एक टीस उठी और बोली "भै भूखो मैं सीती" मतलब भाई भूखा चला गया और में सोई रह गई| बहिन इस पीड़ा को सहन नहीं कर सकी और दुनिया से चली  गई| अगले जन्म में वह घुघुति (फाख्ता) बन कर आई जिस के गले में एक काले रंग का निशान होता है और बोलने लगी " भै भूखो मैं सीती, भै भूखो मै सीती " जो आज भी पेड़ों पर बैठी बोलती सुनाई देती है| और आज भी  इस परम्परा को निभाते हुए एक भाई अपनी बहिन को चैत के महीने में भिटौली देने जरुर जाता है| परन्तु आजकल अधिकतर भाई अपनी नौकरी के सिलसिले में दूर रहते हैं और अब व्यस्तता अधिक हो गयी है सो बहिनों को मनीओडर या कोरिअर भेजकर भाई अपने फ़र्ज़ की इतिश्री कर देते हैं |  हमारी उन भाइयों से अर्ज है कि वे साल में एक बार चैत के महीने में बहिन के घर खुद जाकर उसे भिटौली दें , जिस से इस परम्परा को जीवित रक्खा जा सके| धन्यवाद|                                         के. आर. जोशी.( पाटली)
  

Wednesday, March 16, 2011

फूलधेयी

                   फूलधेयी का मतलब धेयी( देहरी ) पर फ़ूल डालकर उस घर में रहने वालों के लिए शुभकामना करना है| जिस तरह अंग्रेज लोग फूलों का गुच्छा (बुके) देकर अभिवादन करते हैं ठीक उसी तरह उत्तराँचल के कुमाऊ आँचल में चैत महीने के शुक्ल पक्ष के पड़ेले को( जिसे संवत्सर पड़ेला भी कहते हैं) इस फूलों के  त्यौहार को मानते है| इस दिन से नया साल सुरु हो जाता है| शायद नए साल की ख़ुशी में ही इस त्यावाहर का प्रचालन हुवा हो|  
इस त्यौहार  में  छोटे  बच्चों  की  बहुत  दिलचस्पी  होती  है| बच्चे एकदिन पहले से ही तयारी में लग जाते हैं| पहले दिन शाम को ही कई रंगों के फ़ूल तोड़ कर ले आते हैं| जिस में बुराश, प्योली, मिझाऊ, गुलाब आदि के फ़ूल होते हैं| पड़ेले के दिन सुबह उठ कर धेयी (देहरी) को लीप कर साफ किया जाता है | छोटे बच्चे नहा धो कर तयार होते हैं| फिर एक थाली या टोकरी जो बांस की बनी होती है जिसे कुमाउनी में टुपर कहते हैं में कुछ चावल और फ़ूल रख कर बच्चे गांव में हर घर की धेयी (देहरी) में जाकर फ़ूल डालते हैं और मुंह से बोलते हैं|
फ़ूल धेयी, छम्मा धेयी, देणी द्वार, भर भाकर|
यौ  धेयी  सौ  बार,  बारम्बार  नमस्कार|
                    फिर उस परिवार वाले बच्चों को अपनी सामर्थ मुताबिक गुड, चावल मिठाई, पैसे आदि देते हैं| इस प्रकार जो चावल और गुड  इकठ्ठा होता है उस से एक पकवान बनाया जाता है जिसे सेई कहते हैं| यह पकवान चावल के हलवे की तरह होता है| जो खुद भी खाते हैं और पास पड़ोस में भी बाँटते हैं| इस तरह कुमाउनी बच्चे फ़ूल धेयी छम्मा धेयी का नारा लगा कर इस परम्परा को जिन्दा रक्खे हुए हैं|

Sunday, March 6, 2011

माँ की लोरियाँ

माँ की आवाज 
अंधेरों में सोते से 
अचानक जगाती है 
वह माँ जो मुझे 
लोरियां गाकर सुनती थी,
आज अकेले में गाकर दो पंक्तियाँ 
स्वयं को सहज पाती है 
इतनी दूर से भी उसका स्पर्श 
वो हाथ, वो बात, वो लोरियां 
सब कुछ याद आता है 
तो मेरा ह्रदय अचानक ही 
द्रवित हो जाता है 
आंसू छलकते हैं आँखों से
मन उदास और उदास हो जाता है
चाहता हूँ मैं भी कि संग रहूँ सब के 
पर सोचते- सोचते ही  सबेरा हो जाता है 
और पुन: नवीन दिवस के साथ 
नवीन कल्पनाएँ संजोने लगता हूँ
रात में फिर माँ की, लोरियों की             
यादों में खोने लगता हूँ|

Saturday, February 26, 2011

वृक्ष -दोहावली


वृक्ष हमारे नित्य सहायक, उनकी सेवा पालन कर्म|
यही   हमारी  भारतीयता,  यही  हमारा  हिन्दू  धर्म||
पत्र- पत्रमें  देव विराजित रोग  सभी करती है  नाश|
तुलसी तुमको नित बंदन है,सभी तीर्थका तुममें वास||
पीपल जो अश्वत्थ  कहता,श्रीकृष्ण का  जिस में वास|
इसे  काटना  महां  पाप  है,  ऐसा  मनमें  हो  विश्वास||
सभी  मांगलिक  कार्यों  की  है  शोभा  कदली  वृक्ष|
हरा भरा  हो जल  सिचनसे,  ऐसा रहे  सर्वदा  लक्ष||
बाग-बगीचे आँगन-बाड़ी, वृक्ष 'आमलक' हो हर ठौर|
सदियों से पूजा जाता है, सभी औषधियों का सिरमौर||
बेर-वृक्ष लक्ष्मी-परिचायक,बद्री वृक्ष जिसे कहते हैं|
शबरी  के मीठे बेरों की, राम  प्रशंसा खुद  करते  हैं||
फल का राजा आम कहाता,आम्र-वृक्ष भारतका गौरव|
वातावरण पवित्र बनाता,आम्र-मंजरी  का यह सौरभ ||
पेड़ नारियलका  उपयोगी,मधुर पौष्टिक श्रीफल नाम|
पंखे,  झाड़ू, रस्सी, बोरी  और  तेल  भी  आता  काम||
मन वांछित फल जो देता है,बोधिसत्व का ज्ञान|
छाया  से  मन  हर्षित होता, वटका  वृक्ष  महान||
खैर, खेजद्री, शीशम, साल, चीड़, चिनार और बांज, बुरांस|
कटहल,इमली, जामुन, लीची, गुलर, नीम, बबूल, पलास||
सभी   वृक्ष   कितने  उपयोगी, पत्थर  मारो  फल  देते  हैं|
ब्यर्थ  न  काटो,  इन्हें  बचाओ, ये  धरती को जल  देते  हैं||                       (कल्याण में से )

Thursday, February 17, 2011

सहारा

अंगुली पकड़ कर चलनेवाला मैं,
उस दिन बिना सहारे के चला था|
पहली बार गिरा फिर रोया,
रोता रहा बेजार|
मुझे सहारा चाहिए था खड़ा होने के लिए,      
उन सहारों को पकड़ कर आहिस्ता आहिस्ता चलने के लिए|
मगर कोई नहीं आया,
मैं चीखा था चिल्लाया था|
मैंने हाथ भी फैलाए थे,
मगर कोई नहीं आया|
तब मैंने ढूंढा था,
शायद खुद में ही खुद के लिए सहारा|
तब मैं नादान था इन बातों से अंजान था,
पर अब कभी जब भी मैं गिरता हूँ,
रोता नहीं, पर सोचता जरुर हूँ,
यदि उस दिन किसी ने सहारा दिया होता,
तो मैं जिन्दगी भर सहारों के बल पर ही चल रहा होता|

Thursday, February 10, 2011

स्वर्ग से मेले तक


इस बेकारी ने इस लोक तो क्या,  स्वर्ग  लोक तक दिखा दिया|
मज़बूरी से आवेदन पत्र पर, हमने भी अपना नाम लिख दिया||
सुना   है  स्वर्ग   में  पोस्टों  का,   एक  खुला   बम्पर  आया|
एक  - एक   करके   लाइन   से,  हमारा   भी   नंबर   आया||
घूमती कुर्सी  में बैठे यमराज, एक - एक करके  बुला  रहे हैं|
नुक्स  गलतियाँ  कई बता कर, बेरोजगारों  को  रुला रहे  हैं||
बोले- तुम्हारे पोस्टल आर्डर में, डेट ठीक से नहीं चढ़ी हुई है|
वैसे  भी  इस  पोस्ट  के  लिए,   तुम्हारी  उम्र  बढ़ी  हुई  हैं|| 
बोले कितने ही काल अकाल से, यहाँ भी अब भीड़ बढ़ चुकी है|
यहाँ  भी  बेकारी,  भुखमरी  की, गहरी  साज  गढ़  चुकी  है||
जाओ एक बार कर्म के मन्दिर में,फिर से माथा टेक के आओ|
वहां  लगा  है  सुन्दर  मेला,  उसका  ताँता  देख  के  आओ||
देखा  लौट के  इस जहाँ  में, बेकारी  का  मेला लगा हुआ है|
इस भीड़  में उपद्रव का, जगह जगह पर झमेला लगा हुआ है||
कहीं  सपेरा  मरे  सांप के ऊपर, अपनी बीन बजा  रहा है|
बन्दर वाला लाठी के बल पर,भूखे बन्दर को नचा रहा है||
दशा   दृश्य   मेले   की   देख,   कहीं   हम  रो  न   जाएँ|
डर   है   इस   मेले   में  आज,  कहीं   हम  खो  न  जाएँ||