Tuesday, June 28, 2011

शरीर मेरा नहीं है

                   अनंत ब्रह्मांडों में अनंत वस्तुएं हैं, पर उन में से तिनके-जितनी वस्तु हमारी नहीं है, फिर शारीर हमारा  कैसे हुआ? यह सिद्धांत है कि जो वस्तु मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह अपनी नहीं होती| शारीर मिलता है और बिछुड़ जाता है, इसलिए वह अपना नहीं है| अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहे| यदि शारीर अपना होता तो यह सदा हमारे साथ रहता और हम सदा इसके साथ रहते| परन्तु शारीर एक क्षण भी हमारे साथ नहीं रहता और हम इसके साथ नहीं रहते|

                     एक वस्तु अपनी होती है और एक वस्तु अपनी मानी हुई होती है| भगवान अपने हैं: क्यूंकि हम उन्हीं के अंश हैं| वे हमसे कभी बिछुड़ते ही नहीं| परन्तु शारीर अपना नहीं है,प्रत्युत अपना मान हुआ है| जैसे नाटकमें कोई रजा बनता है, कोई रानी बनती है, कोई सिपाही बनते हैं तो वे सब नाटक करने के लिए माने हुए होते हैं,असली नहीं होते| ऐसे ही शारीर संसार के व्यवहार के लिए अपना मान हुआ है| यह वास्तव में अपना नहीं है, उस परमात्माको तो भुला दिया और जो अपना नहीं है, उस शारीर को अपना मान लिया-यह हमारी बहुत बड़ी भूल है| शारीर चाहे स्थूल हो, चाहे सूक्षम हो,चाहे कारण हो वह सर्वथा प्रकृतिका है| उसको अपना मानकर ही हम संसार में बंधे हैं|

                        परमात्माका अंश होने के नाते हम परमात्मासे अभिन्न हैं| प्रकृतिका अंश  होने के नाते शरीर प्रकृतिसे अभिन्न है| जो अपने से अभिन्न है, उसको अपनेसे अलग मानना और जो अपनेसे भिन्न है उसको अपना, सम्पूर्ण दोषों का मूल है| जो अपना नहीं है, उसको अपना मानने के कारण ही जो वास्तव में अपना है, वह अपना नहीं दीखता|

                        यह हम सब का अनुभव है कि शरीर पर हमारा कोई अधिकार नहीं चलता| हम अपनी इच्छाओं के अनुसार शरीर को बदल नहीं सकते, बूढ़े से जवान नहीं बना सकते, रोगी से निरोगी नहीं बना सकते, कमजोर से बलवान नहीं बना सकते, काले से गोरा नहीं बना सकते, कुरूप से सुन्दर नहीं बना सकते, मृत्यु से बचाकर अमर नहीं बना सकते| हमारे ना चाहते हुए भी, लाख प्रयत्न करनेपर भी शरीर बीमार हो जाता है, कमजोर हो जाता है और मर भी जाता है| जिस पर अपना वश   न चले,उसको अपना मानलेना मूर्खता ही है| (कल्याण)                      


Wednesday, June 22, 2011

सत्य के मार्ग पर

बातें तो सभी सुनते हैं
पर जो अमल करता है
सुनना उसी का सार्थक है
अकेले चलना सीखो 
साथ किसी का मत ढुंढो
ईश्वर सदा तुम्हारे साथ है 
उसका तो युगों-युगों का साथ है 
बनना है तो नदी की लहर समान  बनो 
यह कैसी सतत कार्यशील है देखो 
कभी तुमने इसे स्थिर देखा है 
न तो यह कभी रूकती है 
न कभी मुड़ कर पीछे देखती है 
मार्ग में कितनी ही बाधाएँ हों 
यह निरंतर आगे बढती ही रहती है 
वह कभी असफल हो ही नहीं सकता 
जिस ने खुद को लहरों के समान बना लिया 
सत्य के मार्ग पर वह बढ़ता ही चला जाता है|

Wednesday, June 15, 2011

आलस्य से पतन होता है

                         एक ऊँट था| उसे पूर्व जन्म की सारी बातें ज्ञानत थी| ऊँट होते हुए भी वह कठिन तपस्या में निरत रहता था| उसकी कठिन तपस्या से ब्रह्मा जी बहुत प्रसन्न हो गए और उस से वर मांगने को कहा| ऊँट ने कहा-भगवन! यदि आप प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये की मेरी यह गर्दन बहुत लम्बी हो जय, जिस से मुझे भोजन के लिए इधर उधर भटकना न पड़े और में एक ही स्थानपर बैठा-बैठा सौ योजन दूरतक की वस्तुओं को भी पा लूँ|
                         ब्रह्मा जी ने कहा-"ऐसा ही होगा"| यह मुँह माँगा वर पाकर ऊँट बहुत प्रसन्न हो गया और बन में अपने स्थानपर जाकर आराम से बैठ गया| अब उसे भोजंकी खोज में कहीं जाने की जरुरत नहीं पड़ती थी| उसकी गर्दन सौ योजन लम्बी हो गई थी, वह बैठे-बैठे ही दूर दूर तक अपनी गर्दन घुमाकर भोजन प्राप्त कर लेता था| देववश मुर्ख ऊँट ने ऐसा वर माँगा जिस से अब वह आलस्यकी मूर्ति बन बैठा| कुछ भी करना उसे अच्छा न लगता और  न उसे ऐसी जरुरत ही महसूस होती थी| बैठ-बैठा वह महां आलसी बन गया था| उसका पुरुषार्थ लुप्त हो गया था|
                         ऐसे ही कुछ दिन बीते| एक दिन की बात है वह ऊँट भोजन की खोज में अपनी सौ योजन लम्बी गर्दन इधर-उधर घुमाकर दूर देशमें चार रहा था| उसी समय अकस्मात् जोर की हवा चलने लगी| तूफान सा आने लगा| थोड़ी ही देर में भयंकर वर्ष भी प्रारंभ हो गई| वह ऊँट अपनी गर्दन को एक गुफा के अन्दर डालकर चरने लगा| संयोग से उसी समय एक सियार और सियारन भूख और थकान से व्याकुल हो, साथ ही वर्ष से बचने के लिए उस गुफा के अन्दर प्रविष्ट हुए| वह मांसजीवी  सियार भूख से कष्ट पा रहा था| वहां उसे ऊँट की गर्दन दिखाई पड़ी, फिर क्या था! सियार सियारन दोनों साथ-साथ ऊँट की गर्दन को काट कर खाने लगे| 
                         इधर सौ योजन दूर बैठा उस ऊँट को जब अपनी गर्दन काटने का दर्द महसूस हुआ  तो वह अपनी गर्दन समेटने का प्रयास करने लगा, परन्तु इतनी लम्बी गर्दन समेटना संभव नहीं था| इधर सियार सपरिवार बड़ी मजे से गर्दन काट-काट कर खाए जा रहा था| गर्दन के काट जाने से ऊँट की मृत्यु हो गई| जब थोड़ी देर बाद वर्षा बंद हो गई तोवह सियार परिवार गुफा से बहार निकल कर चला गया|
                        इस प्रकार आलस्य के कारन ऊँट की मृत्यु हो गयी| अत: मनुष्य को आलस्य और प्रमाद का त्याग करके सदैव पुरुषार्थी बना रहना चाहिए| जो व्यक्ति जितेन्द्रिय और दक्ष है उसकी सदा विजय होती है और वह अपने प्रयत्न में सदा सफल होता है|                                  (कल्याण से)

Thursday, June 9, 2011

कोसलराज

          पुराने समय की बात है  काशी और कोसल दो पडोसी राज्य थे | काशी नरेश को कोसल के राजा की चारों तरफ फैली हुई कीर्ति सहन नहीं होसकी| काशी नरेश ने कोसल राज्य पर आक्रमण कर दिया| इस लड़ाई मे काशी  नरेश की जीत हुई| कोसल के राजा की हार हो गई| हार जाने के बाद कोसल राजा जान बचाने जंगल मे चले गए| कोसल राज्य की जनता अपने राजा के बिछुड़ ने पर काफी नाराज थी | काशी  के राजा को अपना राजा मानने को तैयार नहीं थी | उन को कोई सहयोग भी देने को तैयार नहीं थे | प्रजा के इस असहयोग के कारन काशी  नरेश काफी नाराज थे| उन्हों ने कोसल राज को ख़तम करने की घोषणा कर दी और कोसल राज  को ढूढने वाले को सौ स्वर्ण मुद्राएँ देने का ऐलान कर दिया|
            काशी  नरेश  की इस घोषणा  का कोई असर नहीं हुआ| धन के लालच में कोई  भी अपने धार्मिक नेता को शत्रु के हवाले करने को तैयार नहीं था | उधर कोसल राज बन मे इधर उधर भटकते फिर रहे थे | बाल बड़ेबड़े हो चुके थे बालों में जटा  बन चुकी थी | शरीर काफी दुबला पतला हो चुका था| वे एक बनवासी  की तरह दिखने लगे थे| एक  दिन कोसलराज बन मे घूम रहे थे | कोई आदमी उन के पास आया और बोला कि यह जंगल कितना बड़ा है? कोसल को जाने वाला मार्ग किधर है और कोसल कितनी दूर है? यह सुन कर कोसल नरेस चौंक गए | उन्हों ने राही  से पूछा कि वह कोसल क्यों जाना चाहता है?
          पथिक ने उत्तर दिया कि मे एक ब्यापारी हूँ | ब्यापार करके जो कुछ कमाया था उसको लेकर अपने घर जा रहा था | सामान से लदी नाव नदी मे डूब चुकी है| मे कंगाल हो गया हूँ | मांगने की नौबत आ चुकी है अब घर घर जाकर कहाँ भिक्षा मांगता फिरुगा| सुना है कि कोसल के राजा बहुत दयालु और उदार हैं| इसलिए सहायता के लिए उन के पास जा रहा हूँ|
           कोसलराज ने पथिक से कहा आप दूर से आये हो और रास्ता बहुत जटिल है चलो मे आप को वहां तक पहुंचा  आता हूँ | दोनों वहां से चल  दिए| कोसल  राज  ब्यापारी को कोसल लेजाने के बजाय काशिराज की सभा मे ले गए| वहां उन को अब पहचानने वाला कोई नहीं था | वहां पहुँचने पर काशिराज ने उनसे पूछा आप कैसे पधारे हैं? कोसलराज ने जवाब दिया कि मे कोसल का राजा हूँ| मुझे पकड़ने के लिए तुमने पुरस्कार घोषित किया है| यह पथिक मुझे पकड़कर यहाँ लाया है इस लिए इनाम की सौ स्वर्ण मुद्राएँ इस पथिक को  दे  दीजिये | सभा मे सन्नाटा छा गया | कोसल राज की सब बातें सुनकर काशिराज  सिहासन से उठे और बोले महाराज!आप जैसे धर्मात्मा, परोपकारी को पराजित करने की अपेक्षा आप के चरणों पर आश्रित होने का गौरव कहीं अधिक है| मुझे अपना अनुचर स्वीकार करने की कृपा कीजिये | इस प्रकार  ब्यापारी को मुह माँगा धन मिल गया और कोसल और काशी  आपस मे मित्र राज्य बन गए|