Wednesday, November 13, 2013

ज्ञान का अंदाज़

               जिन्दगी में सीखने कि लिए सदैव तत्पर रहना चाहिये. एक ट्रक ड्राइवर अपने सामान डिलेवरी करने के लिए मेंटल हॉस्पिटल गया। सामान डिलेवरी के पश्चात वापस लौटते समय उसने देखा कि उसके ट्रक का एक पहिया पंचर हो गया। ड्राइवर ने स्टेपनी निकाल कर पहिया खोला पर गलती से उसके हाथ से पहिये कसने के चारों बोल्ट पास की गहरी नाली में गिर गए जहाँ से निकालना संभव न था। अब ड्राइवर बहुत ही परेशान हो गया कि वापस कैसे जाए।
                 इतने में पास से मेंटल हॉस्पिटल का एक मरीज गुजरा। उसने ड्राइवर से कहा कि क्या बात है। ड्राइवर ने मरीज को बहुत ही हिकारत से देखते हुए सोचा कि यह पागल क्या कर लेगा। फिर भी उसने मरीज को पूरी बात बता दी. मरीज ने ड्राइवर के ऊपर हँसते हुए कहा कि तुम इतनी छोटी समस्या का समाधान भी नहीं कर सकते हो और इसीलिये तुम ड्राइवर ही हो। ड्राइवर को एक पागलपन के मरीज से इस प्रकार का संबोधन अच्छा नहीं लगा और उसने मरीज से चेतावनी भरे शब्दों में पूछा कि तुम क्या कर सकते हो?
               मरीज ने जवाब दिया कि बहुत ही साधारण बात है। बाकी के तीन पहियों से एक एक बोल्ट निकाल कर पहिया कस लो और फिर नजदीक की ऑटो पार्ट की दुकान के पास जाकर नए बोल्ट खरीद लो। ड्राइवर इस सुझाव से बहुत ही प्रभावित हुआ और उसने मरीज से पूछा कि तुम इतने बुद्धिमान हो फिर इस हॉस्पिटल में क्यों हो? मरीज ने जवाब दिया कि, "मैं सनकी हूँ पर मूर्ख नहीं." कोई आश्चर्य की बात नहीं कि कुछ लोग ट्रक ड्राइवर की तरह व्यवहार करते हैं, सोचते हैं कि दूसरे लोग मूर्ख हैं. अतः हम सब ज्ञानी और पढ़ें लिखे हैं, पर निरीक्षण करें कि हमारे आस् पास इस प्रकार के सनकी व्यक्ति भी रहते हैं जिनसे ढेर सारे व्यावहारिक जीवन के नुस्खे मिल सकते हैं और जो हमारी बुद्धिमत्ता को ललकारते रहेंगे।
                कहानी से सीख :-- कभी भी यह न सोचे कि आपको सब कुछ आता है और दूसरे लोगों को उनके बाहरी आवरण के आधार पर उनके ज्ञान का अंदाज़ न लगाये.

Friday, November 1, 2013

आज ही क्यों नहीं ?

                 एक बार की बात है कि एक शिष्य अपने गुरु का बहुत आदर-सम्मान किया करता था |गुरु भी अपने इस शिष्य से बहुत स्नेह करते थे लेकिन वह शिष्य अपने अध्ययन के प्रति आलसी और स्वभाव से दीर्घसूत्री था |सदा स्वाध्याय से दूर भागने की कोशिश करता तथा आज के काम को कल के लिए छोड़ दिया करता था | अब गुरूजी कुछ चिंतित रहने लगे कि कहीं उनका यह शिष्य जीवन-संग्राम में पराजित न हो जाये|आलस्य में व्यक्ति को अकर्मण्य बनाने की पूरी सामर्थ्य होती है |ऐसा व्यक्ति बिना परिश्रम के ही फलोपभोग की कामना करता है| वह शीघ्र निर्णय नहीं ले सकता और यदि ले भी लेता है,तो उसे कार्यान्वित नहीं कर पाता| यहाँ तक कि अपने पर्यावरण के प्रति भी सजग नहीं रहता है और न भाग्य द्वारा प्रदत्त सुअवसरों का लाभ उठाने की कला में ही प्रवीण हो पता है | उन्होंने मन ही मन अपने शिष्य के कल्याण के लिए एक योजना बना ली |
               एक दिन एक काले पत्थर का एक टुकड़ा उसके हाथ में देते हुए गुरु जी ने कहा –‘मैं तुम्हें यह जादुई पत्थर का टुकड़ा, दो दिन के लिए दे कर, कहीं दूसरे गाँव जा रहा हूँ| जिस भी लोहे की वस्तु को तुम इससे स्पर्श करोगे, वह स्वर्ण में परिवर्तित हो जायेगी| पर याद रहे कि दूसरे दिन सूर्यास्त के पश्चात मैं इसे तुमसे वापस ले लूँगा|’ शिष्य इस सुअवसर को पाकर बड़ा प्रसन्न हुआ लेकिन आलसी होने के कारण उसने अपना पहला दिन यह कल्पना करते-करते बिता दिया कि जब उसके पास बहुत सारा स्वर्ण होगा तब वह कितना प्रसन्न, सुखी,समृद्ध और संतुष्ट रहेगा, इतने नौकर-चाकर होंगे कि उसे पानी पीने के लिए भी नहीं उठाना पड़ेगा | फिर दूसरे दिन जब वह प्रातःकाल जागा,उसे अच्छी तरह से स्मरण था कि आज स्वर्ण पाने का दूसरा और अंतिम दिन है |उसने मन में पक्का विचार किया कि आज वह गुरूजी द्वारा दिए गये काले पत्थर का लाभ ज़रूर उठाएगा |
             उसने निश्चय किया कि वो बाज़ार से लोहे के बड़े-बड़े सामान खरीद कर लायेगा और उन्हें स्वर्ण में परिवर्तित कर देगा. दिन बीतता गया, पर वह इसी सोच में बैठा रहा की अभी तो बहुत समय है, कभी भी बाज़ार जाकर सामान लेता आएगा. उसने सोचा कि अब तो दोपहर का भोजन करने के पश्चात ही सामान लेने निकलूंगा.पर भोजन करने के बाद उसे विश्राम करने की आदत थी , और उसने बजाये उठ के मेहनत करने के थोड़ी देर आराम करना उचित समझा. पर आलस्य से परिपूर्ण उसका शरीर नीद की गहराइयों में खो गया, और जब वो उठा तो सूर्यास्त होने को था. अब वह जल्दी-जल्दी बाज़ार की तरफ भागने लगा, पर रास्ते में ही उसे गुरूजी मिल गए उनको देखते ही वह उनके चरणों पर गिरकर, उस जादुई पत्थर को एक दिन और अपने पास रखने के लिए याचना करने लगा लेकिन गुरूजी नहीं माने और उस शिष्य का धनी होने का सपना चूर-चूर हो गया |
              पर इस घटना की वजह से शिष्य को एक बहुत बड़ी सीख मिल गयी: उसे अपने आलस्य पर पछतावा होने लगा, वह समझ गया कि आलस्य उसके जीवन के लिए एक अभिशाप है और उसने प्रण किया कि अब वो कभी भी काम से जी नहीं चुराएगा और एक कर्मठ, सजग और सक्रिय व्यक्ति बन कर दिखायेगा. मित्रों, जीवन में हर किसी को एक से बढ़कर एक अवसर मिलते हैं , पर कई लोग इन्हें बस अपने आलस्य के कारण गवां देते हैं. इसलिए मैं यही कहना चाहता हूँ कि यदि आप सफल, सुखी, भाग्यशाली, धनी अथवा महान बनना चाहते हैं तो आलस्य और दीर्घसूत्रता को त्यागकर, अपने अंदर विवेक, कष्टसाध्य श्रम,और सतत् जागरूकता जैसे गुणों को विकसित कीजिये और जब कभी आपके मन में किसी आवश्यक काम को टालने का विचार आये तो स्वयं से एक प्रश्न कीजिये – “आज ही क्यों नहीं ?”

Monday, October 14, 2013

गुरु नानक

गुरु नानक तीर्थाटन करते हुए मक्का-शरीफ पधारे। रात हो गई थी, अतः वे समीप ही एक वृक्ष के नीचे सो गए।

सबेरे उठे तो उन्होंने अपने चारों ओर बहुत सारे मुल्लाओं को खड़ा पाया। उनमें से एक ने नानक देव को उठा देख डांटकर पूछा, 'कौन हो जी तुम, जो खुदा पाक के घर की ओर पांव किए सो रहे हो?'

बात यह थी कि नानक देव के पैर जिस ओर थे, उस ओर काबा था। नानक देव ने उत्तर दिया, 'जी, मैं एक मुसाफिर हूं, गलती हो गई। आप इन पैरों को उस ओर कर दें जिस ओर खुदा का घर नहीं हो।'

यह सुनते ही उस मुल्ला ने गुस्से से पैर खींचकर दूसरी ओर कर दिए किंतु सबको यह देख आश्चर्य हुआ कि उनके पैर अब जिस दिशा की ओर किए गए थे, काबा भी उसी तरफ है। वह मुल्ला तो आग बबूला हो उठा और उसने उनके पैर तीसरी दिशा की ओर कर दिए किंतु यह देख वह दंग रह गया कि काबा भी उसी दिशा की ओर है।

सभी मुल्लाओं को लगा कि यह व्यक्ति जरूर ही कोई जादूगर होगा। वे उन्हें काजी के पास ले गए और उससे सारा वृत्तांत कह सुनाया। काजी ने नानकदेव से प्रश्न किया, 'तुम कौन हो, हिंदू या मुसलमान?'

'जी, मैं तो पांच तत्वों का पुतला हूं'- उत्तर मिला।

'फिर तुम्हारे हाथ में पुस्तक कैसे है?'

'यह तो मेरा भोजन है। इसे पढ़ने से मेरी भूख मिटती है।'

इन उत्तरों से ही काजी जान गया कि यह साधारण व्यक्ति नहीं, बल्कि कोई पहुंचा हुआ महात्मा है। उसने उनका आदर किया और उन्हें तख्त पर बिठाया।

Wednesday, October 9, 2013

विश्वास

                     अमेरिका की बात हैं. एक युवक को व्यापार में बहुत नुकसान उठाना पड़ा. उसपर बहुत कर्ज चढ़ गया, तमाम जमीन जायदाद गिरवी रखना पड़ी| दोस्तों ने भी मुंह फेर लिया, जाहिर हैं वह बहुत हताश था. कही से कोई राह नहीं सूझ रही थी| आशा की कोई किरण दिखाई न देती थी| एक दिन वह एक  पार्क में बैठा अपनी परिस्थितियो पर चिंता कर रहा था| तभी एक बुजुर्ग वहां पहुंचे| कपड़ो से और चेहरे से वे काफी अमीर लग रहे थे. बुजुर्ग ने चिंता का कारण पूछा तो उसने अपनी सारी कहानी बता दी| बुजुर्ग बोले -” चिंता मत करो| मेरा नाम जोहन डी रोकेफिलर है| मैं तुम्हे नहीं जानता,पर तुम मुझे सच्चे और ईमानदार लग रहे हो| इसलिए मैं तुम्हे दस लाख डॉलर का कर्ज देने को तैयार हूँ.” फिर जेब से  चैक बुक निकाल कर उन्होंने रकम दर्ज की और उस व्यक्ति को देते हुए बोले, “नौजवान, आज से ठीक एक साल बाद हम ठीक इसी जगह मिलेंगे| तब तुम मेरा कर्ज चुका देना.” इतना कहकर वो चले गए| युवक  अचम्भित था| रोकेफिलर तब अमेरिका  के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक थे| युवक को तो भरोसा ही नहीं हो रहा था की उसकी लगभग सारी मुश्किल हल हो गयी| उसके पैरो को पंख लग गये| घर पहुंचकर वह अपने कर्जो का हिसाब लगाने लगा|
                  बीसवी सदी की शुरुआत में 10 लाख डॉलर बहुत बड़ी धनराशि होती थी और आज भी है| अचानक उसके मन में ख्याल आया. उसने सोचा एक अपरिचित व्यक्ति ने मुझपे भरोसा किया, पर मैं खुद पर भरोसा नहीं कर रहा हूँ| यह ख्याल आते ही उसने चेक को संभाल कर रख लिया| उसने निश्चय कर लिया की पहले वह अपनी तरफ से पूरी कोशिश करेगा, पूरी मेहनत करेगा की इस मुश्किल से निकल जाए| उसके बाद भी अगर कोई चारा न बचे तो वो चैक  इस्तेमाल  करेगा| उस दिन के बाद युवक ने खुद को झोंक दिया| बस एक ही धुन थी, किसी तरह सारे कर्ज चुकाकर अपनी प्रतिष्ठा को फिर से पाना हैं| उसकी कोशिशे रंग लाने लगी| कारोबार उबरने लगा, कर्ज चुकने लगा| साल भर बाद तो वो पहले से भी अच्छी स्तिथि में था|
                  निर्धारित दिन ठीक समय वह बगीचे में पहुँच गया| वह चेक लेकर  रोकेफिलर की राह देख रहा था की वे दूर से आते दिखे| जब वे पास पहुंचे तो युवक ने बड़ी श्रद्धा से उनका अभिवादन किया| उनकी ओर चेक बढाकर उसने कुछ कहने के लिए मुंह खोल ही था की एक नर्स भागते हुए आई और झपट्टा मरकर वृद्ध को पकड़ लिया| युवक हैरान रह गया| नर्स बोली, “यह पागल बार बार पागलखाने से भाग जाता हैं और लोगो को जॉन डी . रोकेफिलर  के रूप में चैक बाँटता फिरता हैं. ” अब वह युवक पहले से भी ज्यादा हैरान रह गया| जिस चैक के बल पर उसने अपना पूरा डूबता कारोबार फिर से खड़ा किया,वह फर्जी था| पर यह बात जरुर साबित हुई की वास्तविक जीत हमारे इरादे , हौंसले और प्रयास में ही होती हैं| हम सभी यदि खुद पर विश्वास रखे तो यक़ीनन किसी भी असुविधा से सेनिपट सकते है| 

Tuesday, October 1, 2013

लक्ष्य

                  किसी गाँव मे एक साधु रहा करता था ,वो जब भी नाचता तो बारिस होती थी . अतः गाव के लोगों को जब भी बारिस की जरूरत होती थी ,तो वे लोग साधु के पास जाते और उनसे अनुरोध करते की वे नाचे , और जब वो नाचने लगता तो बारिस ज़रूर होती.
कुछ दिनों बाद चार लड़के शहर से गाँव में घूमने आये, जब उन्हें यह बात मालूम हुई की किसी साधू के नाचने से बारिस होती है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ .
                 शहरी पढाई लिखाई के घमंड में उन्होंने गाँव वालों को चुनौती दे दी कि हम भी नाचेंगे तो बारिस होगी और अगर हमारे नाचने से नहीं हुई तो उस साधु के नाचने से भी नहीं होगी. फिर क्या था अगले दिन सुबह-सुबह ही गाँव वाले उन लड़कों को लेकर साधु की कुटिया पर पहुंचे. साधु को सारी बात बताई गयी , फिर लड़कों ने नाचना शुरू किया , आधे घंटे बीते और पहला लड़का थक कर बैठ गया पर बादल नहीं दिखे , कुछ देर में दूसरे ने भी यही किया और एक घंटा बीतते-बीतते बाकी दोनों लड़के भी थक कर बैठ गए, पर बारिश नहीं हुई.
                  अब साधु की बारी थी , उसने नाचना शुरू किया, एक घंटा बीता, बारिश नहीं हुई, साधु नाचता रहा …दो घंटा बीता बारिश नहीं हुई….पर साधु तो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था ,धीरे-धीरे शाम ढलने लगी कि तभी बादलों की गड़गडाहत सुनाई दी और ज़ोरों की बारिश होने लगी . लड़के दंग रह गए और तुरंत साधु से क्षमा मांगी और पूछा- ” बाबा भला ऐसा क्यों हुआ कि हमारे नाचने से बारिस नहीं हुई और आपके नाचने से हो गयी ?”
                  साधु ने उत्तर दिया – ” जब मैं नाचता हूँ तो दो बातों का ध्यान रखता हूँ , पहली बात मैं ये सोचता हूँ कि अगर मैं नाचूँगा तो बारिस को होना ही पड़ेगा और दूसरी ये कि मैं तब तक नाचूँगा जब तक कि बारिस न हो जाये .”
                 सफलता पाने वालों में यही गुण विद्यमान होता है वो जिस चीज को करते हैं उसमे उन्हें सफल होने का पूरा यकीन होता है और वे तब तक उस चीज को करते हैं जब तक कि उसमे सफल ना हो जाएं. इसलिए यदि हमें सफलता हांसिल करनी है तो उस साधु की तरह ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करना होगा.

Wednesday, September 25, 2013

अर्जुन का अहंकार


                        एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं। उनकी इस भावना को श्रीकृष्ण ने समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनकी मुलाकात एक गरीब ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी। अर्जुन ने उससे पूछा, ‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’ ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं।’ आपके शत्रु कौन हैं? अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की। ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है।नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।’
                       आप का तीसरा शत्रु कौन है? अर्जुन ने पूछा। वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिएविवश किया। और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा।कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को।’ यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए। यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया।
                       उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।

Friday, September 20, 2013

अटूट विश्वास


                   एक समय की बात है किसी गाँव में एक साधु रहता था, वह भगवान का बहुत बड़ा भक्त था और निरंतर एक पेड़ के नीचे बैठ कर तपस्या किया करता था | उसका भागवान पर अटूट विश्वास था और गाँव वाले भी उसकी इज्ज़त करते थे|
                   एक बार गाँव में बहुत भीषण बाढ़ आ गई | चारो तरफ पानी ही पानी दिखाई देने लगा, सभी लोग अपनी जान बचाने के लिए ऊँचे स्थानों की तरफ बढ़ने लगे | जब लोगों ने देखा कि साधु महाराज अभी भी पेड़ के नीचे बैठे भगवान का नाम जप रहे हैं तो उन्हें यह जगह छोड़ने की सलाह दी| पर साधु ने कहा- ” तुम लोग अपनी जान बचाओ मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा!” धीरे-धीरे पानी का स्तर बढ़ता गया , और पानी साधु के कमर तक आ पहुंचा , इतने में वहां से एक नाव गुजरी| मल्लाह ने कहा- ” हे साधू महाराज आप इस नाव पर सवार हो जाइए मैं आपको सुरक्षित स्थान तक पहुंचा दूंगा |” “नहीं, मुझे तुम्हारी मदद की आवश्यकता नहीं है , मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा !! “, साधु ने उत्तर दिया. नाव वाला चुप-चाप वहां से चला गया.

                   कुछ देर बाद बाढ़ और प्रचंड हो गयी , साधु ने पेड़ पर चढ़ना उचित समझा और वहां बैठ कर ईश्वर को याद करने लगा | तभी अचानक उन्हें गड़गडाहत की आवाज़ सुनाई दी, एक हेलिकोप्टर उनकी मदद के लिए आ पहुंचा, बचाव दल ने एक रस्सी लटकाई और साधु को उसे जोर से पकड़ने का आग्रह किया| पर साधु फिर बोला-” मैं इसे नहीं पकडूँगा, मुझे तो मेरा भगवान बचाएगा |” उनकी हठ के आगे बचाव दल भी उन्हें लिए बगैर वहां से चला गया | कुछ ही देर में पेड़ बाढ़ की धारा में बह गया और साधु की मृत्यु हो गयी |
                  मरने के बाद साधु महाराज स्वर्ग पहुचे और भगवान से बोले -. ” हे प्रभु मैंने तुम्हारी पूरी लगन के साथ आराधना की तपस्या की पर जब मै पानी में डूब कर मर रहा था तब तुम मुझे बचाने नहीं आये, ऐसा क्यों प्रभु ? भगवान बोले , ” हे साधु महात्मा मै तुम्हारी रक्षा करने एक नहीं बल्कि तीन बार आया , पहला, ग्रामीणों के रूप में , दूसरा नाव वाले के रूप में , और तीसरा ,हेलीकाप्टर बचाव दल के रूप में. किन्तु तुम मेरे इन अवसरों को पहचान नहीं पाए |”
                 इस जीवन में ईश्वर हमें कई अवसर देता है , इन अवसरों की प्रकृति कुछ ऐसी होती है कि वे किसी की प्रतीक्षा नहीं करते है , वे एक दौड़ते हुआ घोड़े के सामान होते हैं जो हमारे सामने से तेजी से गुजरते हैं , यदि हम उन्हें पहचान कर उनका लाभ उठा लेते है तो वे हमें हमारी मंजिल तक पंहुचा देते है, अन्यथा हमें बाद में पछताना ही पड़ता है|
 

Sunday, September 15, 2013

धन, सफलता और प्रेम

                           एक दिन एक औरत अपने घर के बाहर आई और उसने तीन संतों को अपने घर के सामने देखा। वह उन्हें जानती नहीं थी। औरत ने कहा – “कृपया भीतर आइये और भोजन करिए।”संत बोले – “क्या तुम्हारे पति घर पर हैं?” औरत ने कहा – “नहीं, वे अभी बाहर गए हैं।”संत बोले – “हम तभी भीतर आयेंगे जब वह घर पर हों।” शाम को उस औरत का पति घर आया और औरत ने उसे यह सब बताया। औरत के पति ने कहा – “जाओ और उनसे कहो कि मैं घर आ गया हूँ और उनको आदर सहित बुलाओ।” औरत बाहर गई और उनको भीतर आने के लिए कहा। संत बोले – “हम सब किसी भी घर में एक साथ नहीं जाते।” “पर क्यों?” – औरत ने पूछा। उनमें से एक संत ने कहा – “मेरा नाम धन है” – फ़िर दूसरे संतों की ओर इशारा कर के कहा – “इन दोनों के नाम सफलता और प्रेम हैं। हममें से कोई एक ही भीतर आ सकता है। आप घर के अन्य सदस्यों से मिलकर तय कर लें कि भीतर किसे निमंत्रित करना है।” औरत ने भीतर जाकर अपने पति को यह सब बताया। उसका पति बहुत प्रसन्न हो गया और बोला – “यदि ऐसा है तो हमें धन को आमंत्रित करना चाहिए। हमारा घर खुशियों से भर जाएगा।” लेकिन उसकी पत्नी ने कहा – “मुझे लगता है कि हमें सफलता को आमंत्रित करना चाहिए।” 
                      उनकी बेटी दूसरे कमरे से यह सब सुन रही थी। वह उनके पास आई और बोली – “मुझे लगता है कि हमें प्रेम को आमंत्रित करना चाहिए। प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं हैं।” “तुम ठीक कहती हो, हमें प्रेम को ही बुलाना चाहिए” – उसके माता-पिता ने कहा। औरत घर के बाहर गई और उसने संतों से पूछा – “आप में से जिनका नाम प्रेम है वे कृपया घर में प्रवेश कर भोजन गृहण करें।” प्रेम घर की ओर बढ़ चले। बाकी के दो संत भी उनके पीछे चलने लगे। औरत ने आश्चर्य से उन दोनों से पूछा – “मैंने तो सिर्फ़ प्रेम को आमंत्रित किया था। आप लोग भीतर क्यों जा रहे हैं?” उनमें से एक ने कहा – “यदि आपने धन और सफलता में से किसी एक को आमंत्रित किया होता तो केवल वही भीतर जाता। आपने प्रेमको आमंत्रित किया है। प्रेम कभी अकेला नहीं जाता। प्रेम जहाँ-जहाँ जाता है, धन और सफलता उसके पीछे जाते हैं।

Friday, September 6, 2013

कल्याण

                लोकरंजन की इच्छा वाला मनुष्य शुद्धाचारी ही हो ऐसी बात नहीं है। उसको तो अपने बाहरी दिखावे पर अधिक ध्यान रखना पड़ता है, इसीसे वह सुन्दर स्वर में गाना, मधुर भाषा में ब्याख्यान देना, नाचना, को हँसाने-रुलानेके उद्देश्यसे विभिन्न प्रकार के स्वरों में बोलना, भाव  बताना, मुखाकृति बनाना,ध्यानस्थ की भाँति बैठना आदि न मालूम कितनी बातें  करता है। उसका ध्यान रहता है कि मेरे गायन,भाषण व्याख्यान,सत्संग से और मेरी ध्यानस्थ मुर्तिसे लोगों का मेरी ओर खिंचाव हुआ या नहीं। गान,नृत्य, भावप्रदर्शन आदि चीजें कला की दृष्टिसे बहुत उपादेय हैं और किसी सीमातक प्रचारकी दृष्टिसे भी इसकी उपयोगिता है,परंतु जहाँ और जितने अंश में इनका उपयोग केवल लोकरंजन के लिए होता है,वहां उतने अंश में इस लोकरंजन के पीछे,किसी भी हेतुसे हो,अपने व्यक्तित्व के प्रचारकी वासना छिपी रहती है। तुम यदि साधक पुरुष हो अथवा अपना पारमार्थिक कल्याण चाहते हो तो ऐसी वासना को मनद्वारा कहीं किसी कोने में भी मत रहने  दो। भगवान की भक्ति और सदाचार का प्रचार भगवत्सेवा के लिए ही करो।   

Sunday, July 14, 2013

फ़िराक़ गोरखपुरी जी की एक गजल

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से ही पहचान लेते हैं 

तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
तो ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं

हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख्तिलाफों की
मेरी बातें ब-उन्वाने-दिगर वो मान लेते हैं

जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मा नी जान लेते हैं

रफ़िके-जिन्दगी भी अब अनिसे-वक्ते-आखिर है
तेरा ऐ मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं

फ़िराक अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी हम पहचान लेते हैं 

Tuesday, March 26, 2013

होली

बलमा घर आयो फागुन में -२
जबसे पिया परदेश गये , आम लगावे बागन में।
 बलमा घर…
 चैत मास में कांफल पाके, आम जी पाके सावन में। 
बलमा घर…
 गऊ को गोबर आंगन लिपायो,  मंगल काज करावन में।
 बलमा घर…
 प्रिय बिन बसन रहे सब मैले, चोली चादर भिजावन में।
 बलमा घर…
 भोजन पान बानये मन से, लड्डू पेड़ा लावन में।
 बलमा घर…'
 सुन्दर तेल फुलेल लगायो, स्योनिश्रृंगार करावन में।
 बलमा घर…
वस्त्र आभूषण साज सजाये, लागि रही पहिरावन में।
 बलमा घर आयो फागुन में।

Saturday, January 5, 2013

इन्दर ( इनरु मुया )


           बहुत समय पहले की बात है एक गांव में  इन्दर नाम का लड़का  रहता था| इन्दर का इस दुनियां में कोई नहीं था|बेचारा अनाथ था| लोग उसे इनरु मुया  इनरु  मुया कहते थे|(मुया का मतलब अनाथ से है) जब इन्दर कुछ बड़ा हुआ तो गांव के लोगों ने उसे अपने गाय बछिओं को चराने के लिए ग्वाला रख लिया|इन्दर रोज सुबह गायों को लेकर बन में चला जाता सारा दिन गायों को चराता  और शाम  को वापस  ले आता| गांव वाले उसे बारी बारी से खाना और कपड़ा दे देते थे | इस तरह इन्दर का समय बीत  रहा था| एक दिन किसी ने इन्दर को दो बेर देदिए| बेर स्वाद थे इन्दर ने बेर खा कर गुठलियाँ जंगल में जा कर मिटटी मे दबा दी कुछ समय बाद वहां पर बेर के पेड़  उग आये | इन्दर ने पौधों  की साम संभाल की तो कुछ ही सालों में  पौधे काफी बड़े   हो गए और उन पर फल भी लगने लग गए| बेर काफी मीठे और स्वादिष्ट थे| इन्दर खुद भी खाता और लोगों को भी खाने को देता था| एक बार एक बुढ़िया वहां से जा रही थी|  उस की नज़र बेरों पर गई, उसने इन्दर से बेर मांगे तो इन्दर ने बुढ़िया को बेर दे दिए| वह बुढ़िया एक नरभक्षी थी| जब उसने बेर खाए तो सोचा, ये बेर अगर इतने मीठे हैं तो इन बेरो को खाने वाला कितना मीठा नहीं होगा? उसने इन्दर को पकड़ने   की चाल बनाई | बुढ़िया के कंधे पर एक बोरा टांका हुआ था | उसने सोचा कि  इन्दर को किसी तरह बोरे में  डाल लूँ  तो शाम  का खाना हो जाएगा| उसने इन्दर को अपने पास बुलाया और कहा इस बोरे में  जादू है इस बोरे में  बैठ कर जो मांगो मिल जाता है| इन्दर बेचारा सीधा साधा था उस ने सोचा देखूं क्या होता है| जैसे ही इन्दर बोरे में  बैठा बुढ़िया ने बोरे को  ऊपर से बांध दिया और पीठ पर बोरा लगा कर अपने घर की तरफ चल दी| रास्ते  में  बुढ़िया को प्यास लगी तो पानी पीने के लिए बुढ़िया ने बोरा जमीन पर रख्खा और पानी पीने चली गयी| वहां से कोई  राही  गुजर रहा था|  इन्दर ने उस से बोरे का मुंह खोलने के लिए कहा | उसने बोरे का मुंह खोल दिया| इन्दर बोरे से   बाहर आ गया | इन्दर ने फटा फट बोरे में  पत्थर कांटे भ्रिड ,तितैया आदि जो भी हाथ लगा बोरे में  भर दिया और ऊपर से वैसे ही बांध दिया | बुढ़िया आई बोरा उठाया घर को चल दी | रास्ते  में  उस की पीठ पर कांटे चुभने लगे तो उस ने सोचा कि इन्दर चिकोटी  काट रहा है, उस ने कहा जितना मर्जी चिकोटी   काट ले, घर जा कर तो मैं  तुझे ही काट दूंगी| घर जा कर उस ने अपनी बेटी से कहा कि तू जरा इस का मांस तैयार  कर मैं  अभी आती हूँ, कहकर बुढ़िया कुछ लेने बाहर  चली गयी| बुढ़िया की बेटी ने जब बोरे का मुंह खोला तो सारे भ्रिंद और तितैया बुढ़िया की बेटी पर चिपट   गए और उस का बुरा हाल  कर दिया | बुढ़िया ने आ कर देखा तो पछताने  लगी कि मैंने रास्ते  में  क्यों उतारा|
           कुछ दिनों बाद बुढ़िया अपना भेष  बदल कर फिर से इन्दर के पास जंगल में  गयी और इन्दर से बेर मांगे ,इन्दर ने कहा कि तू वही बुढ़िया है जिस ने कुछ दिन पहले मुझे बोरे में  बंद कर लिया था | बुढ़िया ने कहा कि में  तुझे वैसी बुढ़िया लग रही हूँ  में  तो किसी को यहाँ जानती भी नहीं हूँ| इन्दर ने देखा नजदीक में  अब बेर भी नहीं हैं, तो उसने बुढ़िया से कहा कि बेर तो अब पहुँच से दूर रह गए हैं पंहुचा नहीं जाता है तो बुढ़िया ने तरकीब बताई कि सूखी टहनी पर पैर रख कर आगे बढ़ो तो बेर हाथ आ जाएँगे | इन्दर ने वैसा ही किया |जैसे ही इन्दर ने सूखी टहनी पर पैर रखा टहनी टूट गई और इन्दर नीचे  गिर गया नीचे बुढ़िया पहले से ही तैयार थी उस ने बोरे का मुंह खोल दिया और इन्दर बोरे में  जा गिरा| बुढ़िया ने फटा फट बोरे का मुंह बंद कर दिया| बुढ़िया ने बोरा फिर पीठ से लगाया और घर की तरफ चल दी , आज उसने कहीं भी बोरे को रास्ते में  नहीं उतारा, सीधे घर जाकर ही उतारा| बुढ़िया ने अपनी बेटी से कहा कि आज तो मैं  इन्दर को पकड़  कर सीधे घर ही लाई हूँ , इस का मांस तैयार कर मैं  इस के तडके   का इन्तजाम  करती हूँ, कह कर बुढ़िया बाहर   चली गयी| बुढ़िया के जाने के बाद जब बुढ़िया की बेटी ने बोरे का मुंह खोला तो देखा कि इन्दर के बाल  बहुत पतले और लम्बे हैं तो उसने इन्दर से पूछा कि
उसके बाल  इतने लम्बे कैसे हो गए, तो इन्दर ने कहा कि मैं  अपने बालों को उखल में  कूटता हूँ ,इस से मेरे बाल  पतले और लम्बे बनते हैं| बुढ़िया की बेटी ने कहा एक बार मेरे बालों को भी कूट दो ताकि मेरे बाल लम्बे और पतले हो जाएँ, इन्दर ने कहा चलो उखल के पास चलो मैं  तुम्हारे बालों को कूट देता हूँ, ताकि तुम्हारे बाल  भी लम्बे हो जाएँ |बुढ़िया की बेटी मान गई और इन्दर को उखल में  ले गई,  इन्दर ने कहा अपने बालों को उखल में डालो मैं  कूट देता हूँ| बुढ़िया की बेटी ने अपने बाल  उखल में  डाल दिए  और इन्दर कूटने लग गया|उसने एक दो चोट बालों में  मारी  फिर उसके बाद बुढ़िया की बेटी के  गर्दन पर दे मारी  जिस से बुढ़िया की बेटी मर गई, इन्दर ने जल्दी से बुढ़िया की बेटी के कपडे  उतार कर खुद पहन लिए और बुढ़िया की बेटी का मांस तैयार करके चूल्हे के पास बैठ गया, जब बुढ़िया आई तो इन्दर चुपचाप बाहर  आ गया और छत के झरोखे से देखने लगा, बुढ़िया ने मांस को भून कर तैयार किया और बेटी को आवाज दी, बेटी होती तो आती वह तो इन्दर ने मारदी |इन्दर जो झरोखे से देख रहा था  बोल उठा "देखी  अपनी चालाकी अपनी बेटी खुद ही खाली" बुढ़िया ने कहा तुम्हारे पास क्या सबूत है तो इन्दर ने बुढ़िया की बेटी के कपडे  झरोखे से नीचे गिरा दिए और उस के हाथ की अंगूठी भी गिरा दी| बुढ़िया बेटी की जुदाई सहन नहीं कर सकी| उसने अपनी जीभ अपने दातों तले दबा ली और काटली| इस तरह एक नरभक्षी बुढ़िया का अंत हो गया| इन्दर फिर जंगल में  आ गया और अपनी रोज मर्रा की जिन्दगी जीने लग गया|