मोहादधर्मं य: कृत्वा पुन: समनुतप्यते|
मन:समाधीसंयुक्तो न स सेवेत दुष्कृतम||
यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हते|
तथा तथा शरीरं तु तेनाधर्मेण मुच्यते||
यदि विप्रा:कथयते विप्राणां धर्मवादिनाम|
ततोsधर्मकृतात क्षिप्रमपराधात प्रमुच्यते||
यथा यथा नर: साम्यगधर्ममनुभाशते|
समाहितेन मनसा विमुच्यती तथा तथा||
जो मोहवश अधर्म का आचरण कर लेने पर उसके लिए पुन: सच्चे ह्रदय से पश्र्चाताप करता और मन को एकाग्र रखता है, वह पाप का सेवन नहीं करता| ज्यों ज्यों मनुष्य का मन पाप-कर्म की निंदा करता है, त्यों त्यों उसका शारीर उस अधर्म से दूर होता जाता है| यदि धर्मवादी ब्राह्मणों के सामने अपना पाप कह दिया जाय तो वह इस पापजनित अपराध से शीघ्र मुक्त हो जाता है| मनुष्य जैसे जैसे अपने अधर्म की बात बारम्बार प्रकट करता है, वैसे वैसे वह एकाग्रचित हो कर अधर्म को छोड़ता जाता है|
सच्चा पश्चाताप निश्चित ही परिमार्जित करता है!
ReplyDeleted wholesome truth of life....
ReplyDeletegud read!!
बहत सुन्दर और सार्थक चिंतन.
ReplyDeleteपश्चाताप से मन का शोधन होता है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
पश्चाताप यदि सच्चे मन से हो तो बात सीधे ईश्वर तक पहुँचती है.सुंदर विचार.
ReplyDeleteपश्चाताप पाप धो देता है।
ReplyDeleteअनुपमा जी ने सटीक टिप्पणी की है- 'सच्चा पश्चाताप निश्चित ही परिमार्जित करता है!'
ReplyDeleteबहुत खूब.
बहुत सुन्दर ! पश्चाताप अगर सच्चे मन से किया जाए तो ज़रूर फल मिलता है !
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/
बहुत उपयुक्त श्लोक का चयन किया है आपने.
ReplyDeletebahut uttam aur saarthak chintan.
ReplyDeleteप्रायश्चित मन से किया जाए तो निश्चित ही !
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति .. पाप मार्ग को छोड़ने का उपाय सच्चे मन से प्रायश्चित करना ही है .
ReplyDeleteबढ़िया सन्देश.
ReplyDeleteबहुत हि सार्थक लेख !
ReplyDeleteसुदर सीख देता हुआ श्लोक । पर किसी के सामने पापा स्वीकारना सबसे कठिन कार्य है । अपने आप से तो मन स्वीकर ही लेता है ।
ReplyDeleteइस अनुष्टुप छन्द का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर आप ने महतकर्म किया है
ReplyDeleteसाधुवाद
अनुष्टुप छन्द का हिन्दी अनुवाद
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.....!
संजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
पर आपका स्वागत है
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
सच्चे ह्रदय से पश्चाताप करना और मन को एकाग्र करना पाप के मार्ग को आयन्दा के लिये बन्द करना ही है। धर्मात्माओं के सामने आत्मस्वीकृति भी वचन की गोपनीयता को तोड़कर सन्मार्ग पालन में सहायक सिद्ध होती है। आभार!
ReplyDeleteमेरे नये पोस्ट पर आपका स्वागत है-
ReplyDeletehttp://seawave-babli.blogspot.com/
बढ़िया सन्देश
ReplyDeletevery nice message.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप आये,इसके लिए बहुत बहुत आभार आपका.
ReplyDeleteGreat thanks for sharing this
ReplyDelete Hindi health point