पादौ तौ सफलौ पुंसां यू विष्णु गृह्गामिनौ| तौ करौ सफलौ ज्ञेयौ विष्णुपुजापरौ तू यौ||
ते नेत्रे सफले पुंसां पश्यतो ये जनार्दनम| सा जिह्वा प्रोच्यते सभ्दिर्हरीनामपरा तू या ||
सत्यं सत्यं पुन: सत्यामुदधृत्य भुजमुच्यते| तत्वं गुरुसमं नास्ति न देव: केशवात पर:||
सत्यं वच्मि हितं वच्मि सारं वच्मि पुन:पुन:| असारेSस्मिस्तु संसारे सत्यं हरिसमर्चनम||
संसारपाशं सुदृढ़ महामोहप्रदायकम| हरिभक्ति कुठारेण छित्वाSत्यंतसुखी भव||
तनमन: संयुतं विष्णौ सा वाणी तत्परायना| ते श्रोत्रे तत्कथासारपूरिते लोक विन्दिते ||
मनुष्य के उन्हीं पैरों को सफल मानना चाहिए, जो भगवान् विष्णु के मंदिर में दर्शन के लिए जाते हैं| उन्ही हाथों को सफल मानना चाहिए, जो भगवन विष्णु की पूजा में तत्पर रहें| पुरुषों के उन्हीं नेत्रों को पूर्णतया सफल जानना चाहिए, जो भगवान जनार्दन का दर्शन करते हैं| साधु पुरुषों ने उसी जिह्वा को सफल बताया है, जो निरंतर हरी नाम के जप और कीर्तन में लगी रहे| भुजा उठाकर बार-बार सच्ची बात कही जाती है कि गुरु के सामान कोई तत्व नहीं है और विष्णु के सामान कोई देवता नहीं है| में सत्य कहता हूँ, हितकी बात करता हूँ और बार-बार सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान बताता हूँ कि इस असार संसार में केवल श्रीहरी की आराधना ही सत्य है| यह संसार बंधन अत्यंत दृढ है और महान मोह में डालने वाला है| भगवद्भक्तिरूपी कुठार से इसे काट कर अत्यंत सुखी हो जाओ| वही मन सार्थक है, जो भगवान विष्णु के चिंतन में लगा रहता है,वही वाणी सार्थक है, जो भगवान के गुण-गान में निरत है तथा वेही दोनों कान समस्त जगत के लिए वंदनीय हैं, जो भगवत्कथा की सुधा-धारा से परीपूर्ण रहते हैं| ऐसे व्यक्ति के अंत:करण में भगवन ही निवास करते हैं|
मनुष्य के उन्हीं पैरों को सफल मानना चाहिए,
ReplyDeleteबढ़िया सन्देश.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.....!
संजय भास्कर
आदत....मुस्कुराने की
ये लो हम भी हुए दस हजारी
पर आपका स्वागत है
http://sanjaybhaskar.blogspot.com
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति |
ReplyDeleteबधाई स्वीकारें ||
sarthak sandesh
ReplyDeleteकहाँ रहे आप इतने दिन.. लंबी अनुपस्थिति रही.. गहरे विष्णु प्रेम की अभिव्यक्ति.. यह कहाँ से ली गई है??
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteशेष सभी तो स्वार्थयुक्त हो सकते हैं।
ReplyDeletebehtreen prstuti...
ReplyDeleteअन्तर्मन के समर्पण की भावयुक्त प्रार्थना है!!
ReplyDeleteइन्द्रियां हैं ही इसलिए की " मैं " उस "परम मैं" को अनुभूत कर सके |
ReplyDeleteकिन्तु यह "मैं" जब ' मेरा, हमारा और तुम्हारा और उसका ' में खो जाता है - तो फिर इन्द्रियां भी "मैं" की संतुष्टि के झूठे विषयों में प्रवृत्त हो जाती हैं | फिर वे चाँद के बजाय थाली के पानी में बनी चाँद की छाया में खोकर असल चाँद को भूल जाती हैं |
बहुत सुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteसुंदर सार्थक आलेख बढ़िया प्रस्तुति
ReplyDeleteपोस्ट में आने के लिए आभार,...
इसी तरह स्नेह बनाये रखे,....
पावन भाव .....
ReplyDeleteआपके पोस्ट पर आना सार्थक होता है । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति.
ReplyDelete