ऋषि शंख और लिखित दो भाई थे| दोनों धर्मशास्त्रके परम मर्मग्य थे| विद्या अध्ययन समाप्त कर के दोनों ने विवाह किया और अपने अपने आश्रम अलग अलग बना कर रहने लगे|
एक बार ऋषि लिखित अपने बड़े भाई शंख के आश्रम पर उनसे मिलने गए| आश्रम पर उस समय कोई भी नहीं था| लिखित को भूख लगी थी| उन्हों ने बड़े भाई के बगीचे से एक फल तोडा और खाने लगे| वे फल पूरा खा भी नहीं सके थे, इतने में शंख आगये| लिखित ने उनको प्रणाम किया|
ऋषि शंख ने छोटे भाई को सत्कार पूर्वक समीप बुलाया| उनका कुशल समाचार पूछा| इसके पश्चात् बोले-- भाई तुम यहाँ आये और मेरी अनुपस्थिति में इस बगीचे को अपना मानकर तुमने यहाँ से फल लेलिया, इस से मुझे प्रशन्नता हुई;किन्तु हम ब्राह्मणों का सर्वस्व धर्म ही है, तुम धर्म का तत्व जानते हो| यदि किसी की वस्तु उसकी अनुपस्तिथि में उसकी अनुमति के बिना ले ली जाए तो इस कर्म की क्या संज्ञा होगी? "चोरी!" लिखित ने बिना हिचके जवाब दिया| मुझ से प्रमादवस यह अपकर्म होगया है| अब क्या करना उचित है?
शंख ने कहा! राजा से इसका दंड ले आओ| इस से इस दोष का निवारण हो जायेगा| ऋषि लिखित राजधानी गए| राजाने उनको प्रणाम कर के अर्घ्य देना चाहा तो ऋषि ने उनको रोकते हुए कहा-राजन! इस समय में आपका पूजनीय नहीं हूँ| मैंने अपराध किया है, आपके लिए मैं दंडनीय हूँ|
अपराध का वर्णन सुन कर राजाने कहा- नरेश को जैसा दंड देने का अधिकार है, वैसे ही क्षमा करने का भी अधिकार है| लिखित ने रोका- आप का काम अपराध के दंड का निर्णय करना नहीं है,विधान निश्चित करना तो ब्रह्मण का काम है| आप विधान को केवल क्रियान्वित कर सकते हैं| आप को मुझे दंड देना है, आप दंड विधान का पालन करें|
उस समय दंड विधान के अनुसार चोरी का दंड था- चोर के दोनों हाथ काट देना| राजा ने लिखत के दोनों हाथ कलाई तक कटवा दिए| कटे हाथ ले कर लिखित प्रशन्न हो बड़े भाई के पास लौटे और बोले- भैया! मैं दंड ले आया|
शंख ने कहा- मध्यान्ह-स्नान-संध्या का समय हो गया है| चलो स्नान संध्या कर आयें| लिखित ने भाई के साथ नदी में स्नान किया| अभ्यासवश तर्पण करने के लिए उनके हाथ जैसे ही उठे तो अकस्मात् वे पूर्ण हो गए| उन्हों ने बड़े भाई की तरफ देख कर कहा- भैया! जब यह ही करना था तो आप ने मुझे राजधानी तक क्यूँ दौड़ाया? शंख बोले - अपराध का दंड तो शासक ही दे सकता है; किन्तु ब्रह्मण को कृपा करने का अधिकार है|
शंख ने कहा- मध्यान्ह-स्नान-संध्या का समय हो गया है| चलो स्नान संध्या कर आयें| लिखित ने भाई के साथ नदी में स्नान किया| अभ्यासवश तर्पण करने के लिए उनके हाथ जैसे ही उठे तो अकस्मात् वे पूर्ण हो गए| उन्हों ने बड़े भाई की तरफ देख कर कहा- भैया! जब यह ही करना था तो आप ने मुझे राजधानी तक क्यूँ दौड़ाया? शंख बोले - अपराध का दंड तो शासक ही दे सकता है; किन्तु ब्रह्मण को कृपा करने का अधिकार है|
प्रकृति मे क्षमा नहीं चलती और अपराध का दंड मिलता ही है। अपराध न करने की प्रेरणा तो इस कहानी से मिलती है। परंतु इसकी वैज्ञानिकता संदिग्ध होने के कारण अविश्वासनीय भी घटना बन जाती है। अविश्वसनीयता से मूल तत्व का ह्रास भी होता है।
ReplyDeleteअतिरंजना, अतिशयोक्तिपूर्ण. कहानी शास्त्रोक्त हो फिर भी आलोचनायोग्य ही है.
ReplyDeleteयदि इस कथा के अवैज्ञानिक तत्त्व की उपेक्षा कर भी दी जाए तब भी ऋषियों के समय में फल की चोरी का दंड हाथ काटना कब रहा, कुछ याद नहीं पड़ता. लिखित के अनैतिकता होने की बात समझ में आती है.
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteमार्मिक व धार्मिक कथा , अति प्रभावशाली .
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ...
ReplyDeleteइस कथा में सारी बात बिम्बों के सहारे समझाई गयी है और समस्त बिम्ब अपनी अभिव्यक्ति में सफल हैं!!
ReplyDeleteप्रेरक!!
रोचक कथा.
ReplyDeleteकहानी प्रेरक है और एक ब्राह्मण का धर्म और शासन के प्रति आस्था को रेखांकित करती कथा. आभार.
ReplyDeleteKartavya bodh karati upyogi kahani.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया, प्रभावशाली एवं रोचक कथा ! शानदार प्रस्तुती!
ReplyDeleteमेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
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शुद्ध हिंदी में नैतिक शिक्षा से भरी रोचक कथा. आप धन्यवाद के पात्र है. बधाई.
ReplyDeleteमेरी नयी कविता पढ़ें -
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प्रेरणाप्रद कथा
ReplyDeleteविचारपूर्ण रोचक कथा
ReplyDeleteबहुत सुन्दर. अभिभूत हुआ.
ReplyDeleteरोचक कथा है ...
ReplyDeleteप्रेरक और रोचक प्रस्तुति..
ReplyDeleteमुझे लगता है भाई के घर से बिना मांगे भोजन लेना भाई का अधिकार है !
ReplyDeleteसादर
रोचक!
ReplyDeleteprerak katha. vidhaan ke mutaabik dand dena, kshama karna aur galti ki sweekaarokti bahut badi baat hai. saarthak rachna, badhai.
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति प्रेरणा पद कथा
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