Wednesday, October 12, 2011

ऋषि शंख और लिखित

                            ऋषि शंख और लिखित दो भाई थे| दोनों धर्मशास्त्रके परम मर्मग्य थे| विद्या अध्ययन समाप्त कर के दोनों ने विवाह किया और अपने अपने आश्रम अलग अलग बना कर रहने लगे|
                            एक बार ऋषि लिखित अपने बड़े भाई शंख के आश्रम पर उनसे मिलने गए| आश्रम पर उस समय कोई भी नहीं था| लिखित को भूख लगी थी| उन्हों ने बड़े भाई के बगीचे से एक फल तोडा और खाने लगे| वे फल पूरा खा भी नहीं सके थे, इतने में शंख आगये| लिखित ने उनको प्रणाम किया|
                             ऋषि शंख ने छोटे भाई को सत्कार पूर्वक समीप बुलाया| उनका कुशल समाचार पूछा| इसके पश्चात् बोले-- भाई तुम यहाँ आये और मेरी अनुपस्थिति में इस बगीचे को अपना मानकर तुमने यहाँ से फल लेलिया, इस से मुझे प्रशन्नता हुई;किन्तु हम ब्राह्मणों का सर्वस्व धर्म ही है, तुम धर्म का तत्व जानते हो| यदि किसी की वस्तु  उसकी अनुपस्तिथि में उसकी अनुमति के बिना ले ली जाए तो इस कर्म की क्या संज्ञा होगी? "चोरी!" लिखित ने बिना हिचके जवाब दिया| मुझ से प्रमादवस यह अपकर्म होगया है| अब क्या करना उचित है?
                           शंख ने कहा! राजा से इसका दंड ले आओ| इस से इस दोष का निवारण हो जायेगा| ऋषि लिखित राजधानी गए| राजाने उनको प्रणाम कर के अर्घ्य देना चाहा तो ऋषि ने उनको रोकते हुए कहा-राजन! इस समय में आपका पूजनीय नहीं हूँ| मैंने अपराध किया है, आपके लिए मैं दंडनीय हूँ|
                           
                          अपराध का वर्णन सुन कर राजाने कहा- नरेश को जैसा दंड देने का अधिकार है, वैसे ही क्षमा करने का भी अधिकार है| लिखित ने रोका- आप का काम अपराध के दंड का निर्णय करना नहीं है,विधान निश्चित करना तो ब्रह्मण का काम है| आप विधान को केवल क्रियान्वित कर सकते हैं| आप को मुझे दंड देना है, आप दंड विधान का पालन करें|
                          उस समय दंड  विधान के अनुसार चोरी का दंड था- चोर के दोनों हाथ काट देना| राजा ने लिखत के दोनों हाथ कलाई तक कटवा दिए| कटे हाथ ले कर लिखित प्रशन्न हो बड़े भाई के पास लौटे और बोले- भैया! मैं दंड ले आया|


                         शंख ने कहा- मध्यान्ह-स्नान-संध्या का समय हो गया है| चलो स्नान संध्या कर आयें| लिखित ने भाई के साथ नदी में स्नान किया| अभ्यासवश तर्पण करने के लिए उनके हाथ जैसे ही उठे तो अकस्मात् वे पूर्ण हो गए| उन्हों ने बड़े भाई की तरफ देख कर कहा- भैया! जब यह ही करना था तो आप ने मुझे राजधानी तक क्यूँ दौड़ाया? शंख बोले - अपराध का दंड तो शासक ही दे सकता है; किन्तु ब्रह्मण को कृपा करने का अधिकार है|

21 comments:

  1. प्रकृति मे क्षमा नहीं चलती और अपराध का दंड मिलता ही है। अपराध न करने की प्रेरणा तो इस कहानी से मिलती है। परंतु इसकी वैज्ञानिकता संदिग्ध होने के कारण अविश्वासनीय भी घटना बन जाती है। अविश्वसनीयता से मूल तत्व का ह्रास भी होता है।

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  2. अतिरंजना, अतिशयोक्तिपूर्ण. कहानी शास्‍त्रोक्‍त हो फिर भी आलोचनायोग्‍य ही है.

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  3. यदि इस कथा के अवैज्ञानिक तत्त्व की उपेक्षा कर भी दी जाए तब भी ऋषियों के समय में फल की चोरी का दंड हाथ काटना कब रहा, कुछ याद नहीं पड़ता. लिखित के अनैतिकता होने की बात समझ में आती है.

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  4. मार्मिक व धार्मिक कथा , अति प्रभावशाली .

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  5. सुन्दर प्रस्तुति ...

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  6. इस कथा में सारी बात बिम्बों के सहारे समझाई गयी है और समस्त बिम्ब अपनी अभिव्यक्ति में सफल हैं!!
    प्रेरक!!

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  7. कहानी प्रेरक है और एक ब्राह्मण का धर्म और शासन के प्रति आस्था को रेखांकित करती कथा. आभार.

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  8. बहुत बढ़िया, प्रभावशाली एवं रोचक कथा ! शानदार प्रस्तुती!
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  9. शुद्ध हिंदी में नैतिक शिक्षा से भरी रोचक कथा. आप धन्यवाद के पात्र है. बधाई.

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  10. विचारपूर्ण रोचक कथा

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  11. बहुत सुन्दर. अभिभूत हुआ.

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  12. प्रेरक और रोचक प्रस्तुति..

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  13. मुझे लगता है भाई के घर से बिना मांगे भोजन लेना भाई का अधिकार है !
    सादर

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  14. prerak katha. vidhaan ke mutaabik dand dena, kshama karna aur galti ki sweekaarokti bahut badi baat hai. saarthak rachna, badhai.

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  15. सुंदर प्रस्तुति प्रेरणा पद कथा

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