चलना है अगर,
जीवन के बीहड़ राहों में ,
खुद से पहले वादा कर लो|
मंजिल मिले या ना मिले,
चलते रहना क्या कम है,
आज तुम खुद से ये वादा कर लो|
जीना है अगर,
आंसुओं को छुपा लो,
चेहरे पर हँसी,
होंठों पर गीत सजा लो|
बनना है अगर कुछ
मिटाना पड़ेगा जिन्दगी को कुछ,
बाहर अँधेरा ही सही,
अपने अन्दर दीप जला लो|
चलना है अकेले ही,
फिर तलाश क्यूँ है किसी की,
अपनी आत्मप्रेरणा को ही साथी बना लो|
Wednesday, October 27, 2010
Friday, October 22, 2010
'सफलता प्राप्ति के सूत्र '
मन में यह आकांक्षा मचलने लगती है कि उसे डाक्टर, इंजिनियर, वकील साहित्यकार या कलाकार बनना है| कई दिलों में
संपन्न और सम्रद्ध बनने की ख्वाहिश पालने लगते हैं| हर युवक अपने अपने सपने साकार करना चाहता है| परइनमें
से कुछ ही युवक सफल हो पाते हैं| क्यों कि सभी अपने उद्देश्य के मुताबिक परिश्रम नहीं करते, या यों कहिए कि वो परिश्रम
करने की ओपचारिकता ही निभाते हैं| ऐसी हालत में सफलता हासिल करना कैसे संभव है? मनुष्य का उद्देश्य जितना ऊँचा हो
उसे प्राप्त करने के लिए परिश्रम भी उसी अनुपात में करने की जरुरत है| अगर परिश्रम में थोड़ी सी भी कमी रहगई तो मनुष्य
उद्देश्य प्राप्ति से वंचित रह जाता है|
आप जो बनना चाहते हैं, उसका चित्र हर समय आप की आँखों के सामने और ह्रदय में रहना चाहिए| लक्ष्य पाने की चाह
एक नशे की तरह होनी चाहिए,जो हर पल चढ़ा रहे| ऐसी स्थिति में आप के कदम स्वत: लक्ष्य की ओर बढ़ने लगेंगे| इसके
विपरीत आप अगर चाहें कि परिश्रम किए बिना और समय का सदुपयोग किए बिना सफल हो जाएँ या लक्ष्य प्राप्त कर लें तो यह
संभव नहीं है| आप ने कहीं बाहर जाना है और आप को बता दिया जाए कि यह रास्ता बस अड्डे को जाता है, आप को वहीँ से
बस मिलेगी, आप उस रास्ते पर चलते ही नहीं तो क्या आप बस अड्डे पहुँच सकते हैं? नहीं ना| वैसे ही बिना परिश्रम के
सफलता प्राप्त कर लेना या मंजिल तक पहुंचना संभव नहीं है| इसलिए परिश्रम करने पर सफलता पाना असंभव नहीं है| दृढ
निश्चय के साथ कदम बढाएं और परिश्रम कीजिए सफलता आप को विजय का ताज कैसे नहीं पहनाती|
Sunday, October 17, 2010
Tuesday, October 12, 2010
'इश्के हकीकी'
'नूह' साहब ने फरमाया है:-
इश्के हकीकीके लिए इश्के मजाज़ी है ज़रूर,
वे वसीला कहीं बन्देको खुदा मिलता है|
'नूह' काबे मे नज़र आया न बुत भी कोई,
लोग कहते थे कि काबेमें खुदा मिलता है|
हर तलबगारको मेहनत का सिला मिलता है,
हर तलबगारको मेहनत का सिला मिलता है,
बुत है क्या चीज कि ढूंढेसे खुदा मिलता है|
यह नूर का जलवा है,हर बार नहीं होता ;
हर बार हसीनों का दीदार नहीं होता|
Tuesday, October 5, 2010
"घोड़े पर कौन"
किसी गांव में दो लड़कियां रहती थी| एक का नाम मधु था दूसरी का नाम परु था| दोनों की आपस में गहरी दोस्ती थी| दोनों के घर एकदूसरे के नजदीक थे| दोनों सहेलियां एक ही स्कूल में पढती थीं| पर इनका स्वभाव अलग अलग था| मधु काफी चंचल और चुलबुली लड़की थी| पर परु शांत और गंभीर स्वभाव की थी| कोई भी काम होता दोनों मिल कर किया करती थीं| गांव में कोई भी काम होता तो दोनों सहेलियां साथ साथ पहुँच जाती,खास कर गांव में जब कोई बारात आती थी| जिस घर में भी बारात आती थी दोनों सहेलियां दौड़ पड़ती थी और जाकर छज्जे पर जा के खड़ी हो जाती थी| वहीँ से बारात को देखा करती थीं| मधु आमतौर पर बारातियों का मजाक उड़ाते हुए कह देती देखो घोड़े पर कौन ? फिर खुद ही कह देती गधा बैठ कर आ रहा है| आस पास में जो भी सुनता वह हंस देता था| यह सिल सिला काफी देर तक चलता रहा| कुछ समय बाद मधु की सगाई हो गई| शादी की तारीख भी पक्की हो गई थी| नियत तारीख को बारात बाजे गाजे के साथ मधु के दरवाजे पर आ गई| सब बारात देखने दौड़ पड़े मधु भी उन के साथ दौड़ पड़ी और छज्जे में जाकर खडी हो गई| दुल्हे को देखते ही परु बोल पड़ी कि मधु घोड़े पर कौन,आदत मुताबिक मधु ने कह दिया "गधा"| वहां खड़े सभी की जोर से हंसी फूट गई| जब मधु को अपनी गलती का एहसास हुआ तो उसने अपना सर नीचे कर के आखें झुका लीं| पर शर्म के मारे किसी से कुछ कह नहीं पाई| मधु की मजाक करने की आदत उसके ऊपर ही भारी पड़ गई|इस लिए किसी का भी ब्यर्थ में मजाक नहीं उड़ाना चाहिए|
के: आर: जोशी.(पाटली)
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