Sunday, October 30, 2011

पापके स्वीकारसे पाप-नाश

                                  मोहादधर्मं य:  कृत्वा   पुन:  समनुतप्यते|
                            मन:समाधीसंयुक्तो न  स सेवेत  दुष्कृतम||
                            यथा यथा  मनस्तस्य  दुष्कृतं कर्म गर्हते|
                            तथा  तथा  शरीरं  तु  तेनाधर्मेण  मुच्यते||
                            यदि विप्रा:कथयते विप्राणां धर्मवादिनाम|
                            ततोsधर्मकृतात क्षिप्रमपराधात प्रमुच्यते||
                            यथा  यथा   नर:   साम्यगधर्ममनुभाशते|
                             समाहितेन मनसा  विमुच्यती तथा तथा||  



                    जो मोहवश अधर्म का आचरण  कर लेने पर उसके लिए पुन: सच्चे ह्रदय से पश्र्चाताप करता और मन को एकाग्र रखता है, वह पाप का सेवन नहीं करता| ज्यों ज्यों मनुष्य का मन पाप-कर्म की निंदा करता है, त्यों त्यों उसका शारीर उस अधर्म से दूर होता  जाता है| यदि धर्मवादी ब्राह्मणों के सामने अपना पाप कह दिया जाय तो वह इस पापजनित अपराध  से शीघ्र मुक्त हो जाता है| मनुष्य जैसे जैसे अपने अधर्म की बात बारम्बार प्रकट करता है, वैसे वैसे वह एकाग्रचित हो कर अधर्म को छोड़ता जाता है|


Thursday, October 20, 2011

होने पर भी नहीं है!

                        यस्याखिलामिवहभि:    सुमंग्लैर्वाचो   विमिश्रा  गुणकर्मजन्मभि:|
                              प्रानंती शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगद यास्तद्विरक्ता: शवशोभना मता:||
                     

जब समस्त पापों के नाशक भगवान के परम मंगलमय गुण, कर्म और जन्म की लीलाओं से युक्तहो कर वाणी  उनका गान करती है, तब उस गान से संसार में जीवन की स्फूर्ति होने लगती है, शोभा का संचार हो जाता है, सारी अपवित्रताएँ धुल कर पवित्रता का साम्राज्य छा जाता है: परन्तु जिस वाणी  से उनके गुण, लीला और जन्म की कथाएँ नहीं गायी जातीं, वह तो मुर्दे को ही शोभित करने वाली है, होने पर  भी नहीं  के सामान है| अर्थात व्यर्थ है|

Wednesday, October 12, 2011

ऋषि शंख और लिखित

                            ऋषि शंख और लिखित दो भाई थे| दोनों धर्मशास्त्रके परम मर्मग्य थे| विद्या अध्ययन समाप्त कर के दोनों ने विवाह किया और अपने अपने आश्रम अलग अलग बना कर रहने लगे|
                            एक बार ऋषि लिखित अपने बड़े भाई शंख के आश्रम पर उनसे मिलने गए| आश्रम पर उस समय कोई भी नहीं था| लिखित को भूख लगी थी| उन्हों ने बड़े भाई के बगीचे से एक फल तोडा और खाने लगे| वे फल पूरा खा भी नहीं सके थे, इतने में शंख आगये| लिखित ने उनको प्रणाम किया|
                             ऋषि शंख ने छोटे भाई को सत्कार पूर्वक समीप बुलाया| उनका कुशल समाचार पूछा| इसके पश्चात् बोले-- भाई तुम यहाँ आये और मेरी अनुपस्थिति में इस बगीचे को अपना मानकर तुमने यहाँ से फल लेलिया, इस से मुझे प्रशन्नता हुई;किन्तु हम ब्राह्मणों का सर्वस्व धर्म ही है, तुम धर्म का तत्व जानते हो| यदि किसी की वस्तु  उसकी अनुपस्तिथि में उसकी अनुमति के बिना ले ली जाए तो इस कर्म की क्या संज्ञा होगी? "चोरी!" लिखित ने बिना हिचके जवाब दिया| मुझ से प्रमादवस यह अपकर्म होगया है| अब क्या करना उचित है?
                           शंख ने कहा! राजा से इसका दंड ले आओ| इस से इस दोष का निवारण हो जायेगा| ऋषि लिखित राजधानी गए| राजाने उनको प्रणाम कर के अर्घ्य देना चाहा तो ऋषि ने उनको रोकते हुए कहा-राजन! इस समय में आपका पूजनीय नहीं हूँ| मैंने अपराध किया है, आपके लिए मैं दंडनीय हूँ|
                           
                          अपराध का वर्णन सुन कर राजाने कहा- नरेश को जैसा दंड देने का अधिकार है, वैसे ही क्षमा करने का भी अधिकार है| लिखित ने रोका- आप का काम अपराध के दंड का निर्णय करना नहीं है,विधान निश्चित करना तो ब्रह्मण का काम है| आप विधान को केवल क्रियान्वित कर सकते हैं| आप को मुझे दंड देना है, आप दंड विधान का पालन करें|
                          उस समय दंड  विधान के अनुसार चोरी का दंड था- चोर के दोनों हाथ काट देना| राजा ने लिखत के दोनों हाथ कलाई तक कटवा दिए| कटे हाथ ले कर लिखित प्रशन्न हो बड़े भाई के पास लौटे और बोले- भैया! मैं दंड ले आया|


                         शंख ने कहा- मध्यान्ह-स्नान-संध्या का समय हो गया है| चलो स्नान संध्या कर आयें| लिखित ने भाई के साथ नदी में स्नान किया| अभ्यासवश तर्पण करने के लिए उनके हाथ जैसे ही उठे तो अकस्मात् वे पूर्ण हो गए| उन्हों ने बड़े भाई की तरफ देख कर कहा- भैया! जब यह ही करना था तो आप ने मुझे राजधानी तक क्यूँ दौड़ाया? शंख बोले - अपराध का दंड तो शासक ही दे सकता है; किन्तु ब्रह्मण को कृपा करने का अधिकार है|

Thursday, October 6, 2011

"उत्ती घुन उत्ती च्योनी"

                            हमारे कुमायूं  में एक प्रसिद्द  कहावत है "उत्ती घुन उत्ती च्योनी" जिसका मतलब है वहीँ पर घुटने वहीँ पर ठोड्डी मतलब सिकुड़ कर बहुत कम जगह में गुजारा करना| इस बात पर मुझे बचपन की एक घटना याद आगई| एक दिन की बात है हम बच्चे अपने स्कूल के नजदीक खेल रहे थे, शाम का समय था| एक बृद्ध औरत कहीं से आकर  हमारे स्कूल के सामने आकर बैठ गई| वह कुछ उदास सी लग रही थी| हम सभी बच्चे खेलना छोड़ कर उस बृद्ध औरत के पास चले गए| मेरी ताईजी भी घास लेकर वहीं से घर को जा रही थी| बृद्धा को देख कर वह भी वहीँ आगई| पूछने पर बृद्धा ने रुआं सी आवाज में  बताया कि वह अपने गांव से अपनी बेटी के गांव जा रही है, बेटी का गांव अभी काफी दूर है पर दिन ढलने लग गया है, मेरी यहाँ पर कोई जान पहिचान भी नहीं है, अब में क्या करुँगी रात कहाँ काटूंगी| इसपर मेरी ताईजी ने कहा अगर आप "उत्ती घुन उत्ती च्योनी  कर्नू कौन्छा तो हमार घर हीटो"| मतलब कि अगर आप वहीँ पर ठोड्डी वहीँ पर घुटने करने को तयार हैं तो हमारे घर चलो| बृद्धा हमारे साथ चलने को तयार हो गई| बृद्धा के पास एक छोटी सी पोटली थी जिसको हमने उठाना चाहा पर बृद्धा ने किसी को उठाने नहीं दिया खुद उठा कर हमारे साथ चल कर हमारे घर आगई| चाय पी कर रोटी खाकर जब सोने लगे तो बृद्धा ने बताया कि उसकी पोटली में एक मुर्गी भी है, जो सुबह से भूखी है उसे भी दाना डालना है| बृद्धा ने पोटली खोली और मुर्गी बाहर निकली| हमने कुछ दाने लाकर मुर्गी को डाल दिए, मुर्गी फटा फट दाने चुगने लगी कुछ देर हम उसे दाना चुगते हुए देखते रहे फिर मुर्गी को एक टोकरी से ढक दिया ताकि बिल्ली कोई नुकसान ना पहुंचा सके| सुबह को उठ कर मुह हाथ धो कर चाय पी कर बृद्धा हमें आशीर्वाद देते हुए अपनी बेटी  के गांव को चली गई|