बहुत खोया,
मैं क्यों रोया?
मैंने माना-मेरा दोष,
मुझ को जिनसे रोष था,
आज उनकी बेबसी पर,
और अपनी बेबसी पर,
मुझ को भान आया,
मेरा साया ही मेरा दोष,
मेरा अपना दोषी,
मैं ही बेकस-खुद का था,
मैं खुद का दोषी|
बहुत सच कहा है..अपनी बेबसी और असफलता के हम स्वयं ही दोषी हैं..सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteThanks for visiting my blog AchchiKhabar
ReplyDeleteKya aap khud ye kavitayen likhti hain...bahut achchi baat hai.
यह तो इंसान कि फितरत है .....शुक्रिया
ReplyDeleteचलते -चलते पर आपका स्वागत है
aisa lagta hai jaisey kahi kuch shesh rh gaya hai.....
ReplyDeleteabhaar.........
sankhsipt kintu prabhavshali kavita.. bahut badhiya.. wonderful
ReplyDeleteमैं ख़ुद का दोषी, सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई।
ReplyDeleteदोषी हम नहीं हमारा अज्ञान दोषी है, अविद्या दोषी है, हम तो अभी खुद से परिचित ही नहीं हैं, मिलो तो जानो !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना ...
ReplyDeleteमैं ही बेकस-खुद का था,
मैं खुद का दोषी|
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteYou are all right...
ReplyDeleteबुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय
ReplyDeleteजो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा ना कोय.
मिलते-जुलते भावों पर बनी आपकी रचना. उत्तम शब्द संरचना.
मेरी नई पोस्ट 'भ्रष्टाचार पर सशक्त प्रहार' पर आपके सार्थक विचारों की प्रतिक्षा है...
www.najariya.blogspot.com नजरिया.
वाह क्या लिखा है आपने मैं खुद का दोषी...... बहुत ही अच्छी लगी ये पंक्ति तो.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग "एक्टिवे लाइफ" पर आने के लिए दिल से धन्यवाद ...
ReplyDeleteकविता बहुत सुन्दर है !
kavita aur bhav sunder hai.....
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