Friday, December 9, 2011

इन्द्रियों की सार्थकता भगवान विष्णु के अभिमुख होने में है

              पादौ तौ सफलौ पुंसां यू विष्णु  गृह्गामिनौ|   तौ करौ  सफलौ ज्ञेयौ  विष्णुपुजापरौ तू यौ||
              ते  नेत्रे  सफले पुंसां पश्यतो ये जनार्दनम|  सा जिह्वा  प्रोच्यते    सभ्दिर्हरीनामपरा तू या ||
              सत्यं सत्यं पुन: सत्यामुदधृत्य भुजमुच्यते|   तत्वं गुरुसमं नास्ति न देव: केशवात पर:||
              सत्यं वच्मि हितं वच्मि सारं वच्मि पुन:पुन:| असारेSस्मिस्तु संसारे सत्यं हरिसमर्चनम||
              संसारपाशं     सुदृढ़     महामोहप्रदायकम|   हरिभक्ति  कुठारेण  छित्वाSत्यंतसुखी   भव||
              तनमन: संयुतं विष्णौ सा वाणी तत्परायना|   ते  श्रोत्रे तत्कथासारपूरिते  लोक विन्दिते ||



             मनुष्य के उन्हीं पैरों को सफल मानना चाहिए, जो भगवान् विष्णु के मंदिर में दर्शन के लिए जाते हैं| उन्ही हाथों को सफल मानना चाहिए, जो भगवन विष्णु की पूजा में तत्पर रहें| पुरुषों के उन्हीं नेत्रों को पूर्णतया सफल जानना चाहिए, जो भगवान जनार्दन का दर्शन करते हैं| साधु पुरुषों ने उसी जिह्वा को सफल बताया है, जो निरंतर हरी नाम के जप और कीर्तन में लगी रहे| भुजा उठाकर बार-बार सच्ची बात कही जाती है कि गुरु के सामान कोई तत्व नहीं है और विष्णु के सामान कोई देवता नहीं है| में सत्य कहता हूँ, हितकी बात करता हूँ और बार-बार सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञान बताता हूँ कि इस असार संसार में केवल श्रीहरी की आराधना ही सत्य है| यह संसार बंधन अत्यंत दृढ है और महान मोह में डालने वाला है| भगवद्भक्तिरूपी कुठार से इसे काट कर अत्यंत सुखी हो जाओ| वही मन सार्थक है, जो भगवान विष्णु के चिंतन में लगा रहता है,वही वाणी सार्थक है, जो भगवान के गुण-गान में निरत है तथा वेही दोनों कान समस्त जगत के लिए वंदनीय हैं, जो भगवत्कथा की सुधा-धारा से परीपूर्ण रहते हैं| ऐसे व्यक्ति के  अंत:करण में भगवन ही निवास करते हैं|  
 

14 comments:

  1. मनुष्य के उन्हीं पैरों को सफल मानना चाहिए,
    बढ़िया सन्देश.
    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.....!

    संजय भास्कर
    आदत....मुस्कुराने की
    ये लो हम भी हुए दस हजारी
    पर आपका स्वागत है
    http://sanjaybhaskar.blogspot.com

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  2. बहुत खूबसूरत प्रस्तुति |
    बधाई स्वीकारें ||

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  3. कहाँ रहे आप इतने दिन.. लंबी अनुपस्थिति रही.. गहरे विष्णु प्रेम की अभिव्यक्ति.. यह कहाँ से ली गई है??

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  5. शेष सभी तो स्वार्थयुक्त हो सकते हैं।

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  6. अन्तर्मन के समर्पण की भावयुक्त प्रार्थना है!!

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  7. इन्द्रियां हैं ही इसलिए की " मैं " उस "परम मैं" को अनुभूत कर सके |

    किन्तु यह "मैं" जब ' मेरा, हमारा और तुम्हारा और उसका ' में खो जाता है - तो फिर इन्द्रियां भी "मैं" की संतुष्टि के झूठे विषयों में प्रवृत्त हो जाती हैं | फिर वे चाँद के बजाय थाली के पानी में बनी चाँद की छाया में खोकर असल चाँद को भूल जाती हैं |

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  8. बहुत सुंदर प्रस्तुति...

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  9. सुंदर सार्थक आलेख बढ़िया प्रस्तुति
    पोस्ट में आने के लिए आभार,...
    इसी तरह स्नेह बनाये रखे,....

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  10. आपके पोस्ट पर आना सार्थक होता है । मेरे नए पोस्ट "खुशवंत सिंह" पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  11. सुंदर प्रस्तुति.

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