Tuesday, May 24, 2011

कीटसे ब्रह्मपदतक की यात्रा

          कर्म सिद्धांत के अनुसार प्राणी के जीवन में कोई भी अचिन्त्य घटना घट सकती है| ब्रह्मस्वरूप  विप्रवर  कृष्णद्वैपायन कहीं जा रहे थे| अनायास उनकी दृष्टि एक कीट पर पड़ी, जो गाड़ी की लीक पर द्रुत गति से भाग रहा था| सम्पूर्ण प्राणियों की भाषा का ज्ञान रखने वाले व्यासजीने उस कीट को रोक कर पूछा--तुम इतने उतावले और भयभीत हो कर कहाँ भागे जा रहे हो? तुम्हें किसका भय है? घबराए हुए उस कीट ने आर्त स्वर में कहा-"महामते! वह जो बैलगाड़ी आ रही है, उसकी भयंकर गडगडाहट मैं स्पष्ट सुन रहा हूँ! देखिये न,बैलों पर चाबुक की मार पड़ने से भारी बोझ के कारण वे हांफते हुए निकट ही आ रहे हैं| में तो गाड़ी पर बैठे मनुष्योंके भी नाना प्रकार के वार्तालाप सुन रहा हूँ| अपने प्राणों पर आनेवाले दारुण भय ने मेरे ह्रदय में खेद उतपन्न कर दिया है| प्राणिमात्रके लिए मृत्युसे बढ़कर और कोई दुखदाई अवसर नहीं होता, यह अक्षुण सत्य है| कहीं ऐसा न हो कि में सुखके स्थान पर दुःख में पड़ जाऊँ|
          कीट के इन बचनों को सुनकर महामुनि व्यासजीने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा-"क्या कहा तुमने? सुख! तुम्हें सुख कहाँ है? इस तिर्यक अधम कीटयोनिमें शब्द-स्पर्श-रस-गंध-जैसे भोगोंसे वन्चित तुम्हारा तो मर जाना ही श्रेयस्कर है|
          मर्मभरी वाणी में कीटने  कहा-"ऐसा न कहिए प्रभो! मुझे इसी योनी में सुख मिल रहा है| में जीवित रहना चाहता हूँ| इस शारीर में उपलब्ध भोगों से ही मैं पूर्ण संतुष्ट हूँ| में पूर्व जन्म में एक धनी शूद्र था| ब्राहमणों के प्रतिमेरे मन में आदर का भाव न था, मैं कंजूस, क्रूर और ब्याजखोर था| सब से तीखे बचन बोलना, लोगों को ठगना, झूठ बोलकर धोखा देना, दूसरे के धन को हड़प लेना मेरा स्वभाव बन गया था|मैं अतिथियों को बिना भोजन करे अकेले ही भोजन कर लेता था| दूसरे की समृद्धि देख कर ईर्ष्यावश जलता रहता था, दुसरे के अच्छे कामों में बाधा डालता था,इस प्रकार में बड़े ही निर्दई और धूर्त था पर मैं ने उस जन्म में केवल अपनी बूढी माताकी सेवाकी तथा एक दिन अनायास घर आए अतिथि का सत्कार किया था| उसी पुण्य के प्रभाव से मुझे पूर्व जन्म की समृति अभीतक बनी है| तपोधन! क्या मुझे किसी शुभ कर्म द्वारा सद्गति प्राप्त हो सकती है?       
          क्षुद्रजीव! संतों के दर्शनसे ही पुण्य की प्राप्ति हो जाती है; क्योंकिवे तीर्थ रूप होते हैं; तीर्थ सेवन का फल तो यथाकाल  होता है| किन्तु संतोंके दर्शनसे तत्काल ही फल मिलता है| अत: मेरे दर्शन मात्रसे तुम्हारा उद्धार हो गया समझो|
          अगर तुम्हें अपने किए पर पश्चाताप हो रहा है तो निसंदेह तुम्हें इस योनी से मुक्ति मिल जाएगी, तुम शीघ्र ही मानवयोनी  में उत्पन्न होओगे|
          व्यासजी के इन बचनों को आग्यास्वरूप शिरोधार्य कर वह बीच मार्ग में ही पड़ा रहा| छकड़े के विशाल पहिये के नीचे दब कर उसने प्राण त्याग दिए! जीवन में मृतु ही एकमात्र गूढ़ एवं प्रतक्ष सत्य है|
          तत्पश्चात वह कीट क्रमश: शाही, गोधा, सूअर, मृग, पक्षी, चंडाल आदि योनियों को भोगता हुआ राजपरिवार में राजकुमार के रूप में उत्पन्न हुआ| इस योनी में पुन: व्यास जी की उस से भैट हुई| पूर्व जन्म की स्मृतिके फलस्वरूप वह ऋषिके चरणोंमें गिरकर बोला- भगवन!आप की अनुकम्पा से मैं तुच्छ कीट से राजकुमार हो गया हूँ| अब मेरे लिए सभी प्रकार के सुख-साधन उपलब्ध हैं| अब मुझे वह स्थान मिलगया है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है|
         ऊँठ और खच्चरों से जुती हुई गाड़ियाँ मुझे ढोती हैं| मैं भाई-बंधुओं और अपने मित्रों के साथ मांस-भक्षण करता हूँ| महाप्रज्ञ! आपको नमस्कार है| मुझे आज्ञा दीजिए, आप की क्या सेवा करूँ|
        राजकुमार से इस प्रकार के बचन सुनकर दीर्घ नि:स्वास लेते हुए व्यासजी ने कहा- राजन! अभी तक कीटयोनी  के घृणित व्यवहार तुम्हारी वासना से चिपके हैं| तुम्हारे पूर्व जन्मों के पाप-संचय अभी सर्वथा नष्ट नहीं हुए हैं| तुमने मांस भक्षण की निंदनीय प्रवृति अभी छोड़ी नहीं है|
         इन प्रेरणादाइ  बचनों को सुनकर राजकुमार बन में जाकर उग्र तपस्या में  लीन हो गया, जिसके  प्रभाव से वह अगले जन्म में ब्रह्मवेताओं के श्रेष्ट कुल में उत्पन्न हो कर ब्रह्मपद पाने में समर्थ हुआ|
         कीट ने स्वधर्म का पालन कियाथा, उसी के फल स्वरुप उसने सनातन ब्रह्मपद प्राप्त कर लिया| उत्तम कर्म करने वाला उत्तम योनी में और नीच कर्म करने वाला पापयोनि में जन्म  लेता है| मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसी के अनुसार उसे फल भोगना पड़ता है| इसलिए उत्तम धर्म का ही सर्वदा आचरण करना चाहिए|
                                                                                ( कल्याण में से )

Sunday, May 15, 2011

सुन्दर का ध्यान कहीं सुन्दर

                             श्री गोपाल सिंह नेपाली जी की एक रचना सुन्दर का  ध्यान कहीं सुन्दर|


                  श्री गोपाल सिंह नेपाली का जन्म बिहार  प्रदेश के चंपारण जिले के बेतिया ग्राम में हुआ था| पत्रकारिता के अतिरिक्त नेपाली जी ने काव्य सेवा भी की| उनकी आरंभिक  कविताएँ छायावादी प्रभाव से समन्वित है| किन्तु कालांतर में उन्हों ने स्वतंत्र-पथ का निर्माण किया| "उमंग", "रागनी" ,"पंछी" उनके प्रसिद्द कविता संग्रह हैं| उनकी कविताओं में प्रकृति-प्रेम, जीवन की मस्ती तथा भावात्मक एकता की मधुर महक मिलती है|

सौ-सौ   अंधियारी   रातों   से  तेरी   मुस्कान   कहीं   सुन्दर 
मुख से मुख-छवि पर लज्जा का, झीना परिधान  कहीं सुन्दर 
                                                 तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
दुनियां देखी पर कुछ न मिला,  तुझ को देखा सब कुछ पाया 
संसार-ज्ञान  की  महिमा से, प्रिय  की  पहचान  कहीं  सुन्दर 
                                              तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
जब   गरजे    मेघ,  पपीहा   पिक,   बोलें-डोलें   गुलजारों   में
लेकिन  काँटों  की  झाड़ी  में, बुलबुल  का  गान  कहीं  सुन्दर 
                                              तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
संसार  अपार  महासागर,   मानव  लघु-लघु   जलयान  बने 
सागर  की  ऊँची  लहरों  से,  चंचल  जलयान   कहीं  सुन्दर 
                                             तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
तू  सुन्दर  है  पर  तू  न  कभी,  देता  प्रति-उत्तर  ममता  का
तेरी   निष्ठुर   सुन्दरता   से,   मेरे   अरमान   कहीं    सुन्दर 
                                             तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
देवालय  का   देवता  मौन,  पर  मन  का  देव  मधुर   बोले
 इन मंदिर-मस्जिद-गिर्जा से, मन का भगवान कहीं सुन्दर 
                                            तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर
शीतल  जल  में  मंजुलता  है, प्यासे  की  प्यास  अनूठी  है 
रेतों   में   बहते  पानी  से,  हिरिणी   हैरान   कहीं    सुन्दर 
                                        तेरी  मुस्कान कहीं सुन्दर
सुन्दर है फूल,बिहग, तितली, सुन्दर हैं मेघ, प्रकृति सुन्दर 
पर जो आँखों में है  बसा उसी सुन्दर का  ध्यान  कहीं  सुन्दर  
                                           तेरी मुस्कान कहीं सुन्दर

Friday, May 6, 2011

कर्म ही कर्तव्य है

                 मानव-जीवन पाकर भी, भगवत्प्राप्ति का उद्देश्य समझकर भी मनुष्य दिग्भ्रमित क्यों रहता है? क्या जीवन उसे उसकी इच्छा से प्राप्त हुआ है? अमुक वंश या अमुक जाति में जन्म पाना मनुष्य के बस की बात नहीं है| फिर क्यों न मनुष्य जहाँ प्रभु की इच्छासे जीवन जीने का स्थान मिला, उसे ही अपनी कर्मभूमि समझ अपने योग्यतानुसार प्रभु कार्य में लगाकर अपना जीवन सफल करने का प्रयास करे|
                मनुष्य को जो कुछ भगवान ने दिया है उसके प्रति आभार ब्यक्त करने की अपेक्षा जो नहीं मिला उसे लेकर वह चिंतित तथा दु:खी रहता है|  भौतिक सुख-साधनों को सर्वोपरि  समझ कर परमार्थ को भूल जाता है| अपने जिम्मे आये कार्यों  को करना नहीं चाहता| केवल भोग भोगना चाहता है, कितनी बड़ी मूर्खता  करता है|
                एक किसान हल चलाता  और खेत की मिटटी को नरम कर उसमें बीज  डालता है| उसके पश्चात् प्राकृत या परमात्मा के अनुग्रह से फसल होती है तथा फल भी प्राप्त होता है| यदि भाग्य में नहीं होता तो वर्षा न होने या कम होने से लाभसे वंचित भी रह जाता है| मगर यदि मेहनत नहीं करेगा, बीज  नहीं बोएगा तो  कितनी ही अच्छी वर्षा से फल लाभ     दायक नहीं हो सकता | ईश्वर की सहायता भी तभी फली भूत होती है जब हम ने अपना कार्य किया हो| केवल आशावादी बनकर कर्म-विमुख जीवन निरर्थक है| बिना बीज बोए तो अनपेक्षित झाड़-झंखाड़ ही पैदा होंगे और शेष जीवन उन झाड़ियों के उखाड़ फेंकने में ही बीत जाएगा| (कल्याण में से)

Saturday, April 30, 2011

भाई बहन

श्री गोपाल सिंह "नेपाली" जी की एक रचना,  भाई बहन|

तू चिंगारी बनकर उड़ री,  जाग- जाग में ज्वाला बनूँ :
तू   बन  जा  हृहराती  गंगा,  मैं   झेलम  बेहाल   बनूँ |

आज  बसंती  चोला  तेरा,  मैं  भी सज लूं,  लाल  बनूँ :
तू  भगिनी  बन क्रांति कराली, मैं भाई  विकराल बनूँ |

यहाँ   न   कोई   राधा   रानी,   ब्रिन्दावन ,  बंशीवाला:
तू  आँगन  की ज्योति बहन री, मैं  घर का पहरेवाला |

बहन  प्रेम  का पुतला हूँ  मै, तू  ममता  की गोद बनी:
मेरा  जीवन  क्रीडा-कौतिक, तू  प्रत्यक्ष  प्रमोद  बनी|

मैं   भाई   फूलों   में  भूला,  मेरी  बहन  विनोद  बनी: 
भाई की गति,मति भगिनी की दोनों मंगल-मोद बनी|

यह  अपराध   कलंक  सुशीले,  सारे  फूल जला  देना:
जननी की जंजीर बज रही, चल तबियत बहला देना| 

भाई  एक  लहर  बन आया, बहन  नदी  की  धारा  है:
संगम   है,   गंगा   उमड़ी   है,  डूबा  कुल  किनारा  है |

यह  उन्माद,  बहन  को  अपना  भाई  एक  सहारा है :
कह अलमस्ती ,एक  बहन ही  भाई  का  ध्रुबतारा  है |

पागल  घडी,  बहन-भाई  है,  वह  आजाद  तराना  है :
मुसीबतों  से  बलिदानों  से  पत्थर को  समझाना  है|

Friday, April 22, 2011

कौसानी


             कौसानी उत्तराखंड का एक पर्यटक स्थल है| यह अल्मोड़े से ५३ की: मी: की  दूरी पर अल्मोड़ा बागेश्वर मोटर मार्ग पर स्थित है| कौसानी समुन्द्र ताल से १८९० मी:  की ऊंचाई पर है| यहाँ से ३५० की:मी: चौड़ी हिमालय पर्वत श्रंखला दिखाई देती है| उत्तराखंड में बहुत कम जगहों से ऐसे नज़ारे देखने को मिलते हैं| यहाँ से नंदा देवी, नंदाकोट, पंच्सुली, कमेट आदि कई जगप्रसिद्ध चोटियाँ  एक साथ दिखाई देती हैं| कौसानी एक ऊँची पहाड़ी में स्थित है, इस के एक तरफ सोमेश्वर की घाटी है और दूसरी तरफ बैजनाथ (कत्यूर) की घाटी है| जब १९२९ में महात्मा गांधी जी बागेश्वर में जनसमूह को संबोधन करने के लिए आये तो उन्होंने कौसानी के अनासक्ति आश्रम में कुछ समय बिताया| जहाँ इस समय कस्तूरबा गांधीजी का संग्रहालय है| उस समय गाँधी जी ने कौसानी को स्विट्जरलेंड ऑफ़ इंडिया का नाम दिया था| यहाँ से सूर्योदय और सूर्यास्त का का नजारा देखते ही बनता है ऐसे लगता है जैसे सारे हिमालय को सोने की चादर से ढक दिया हो|
              
               हिंदी के मशहूर कवि सुमित्रा नंदन पन्त जी की यह जन्म स्थली है| जहा पर उन्हों ने अपना बचपन बिताया|  पन्त जी जिस घर में पैदा हुए थे वहां अब उनका संग्रहालय बना दिया गया है| पन्त जी जिस स्कूल में पड़ते थे वह आज भी उसी तरह चल रहा है|
                 
                कौसानी में एक लक्ष्मी आश्रम (सरला देवी आश्रम) भी है| जो बस स्टेसन से १ की: मी: की दूरी पर स्थित है| यह आश्रम एक अंग्रेज औरत ने बनाया था जो लन्दन की मूल निवासी थी| जिस का नाम कैथरीन मेरी हेल्व्मन था| वह जब १९४८ में हिंदुस्तान घूमने आई तो गाँधी जी से प्रभावित होकर हिंदुस्तान में ही रह गयी| कौसानी को उन्हों ने अपने करम स्थली के रूप में चुना| यहाँ उन्हों ने लक्ष्मी आश्रम के नाम से एक बोर्डिंग स्कूल चलाया जिस में लड़कियों को सिलाई कढ़ाई बुनाई आदि सिखाया जाता है| श्री कृष्ण जन्मा अष्टमी को यहाँ बहुत भारी मेला लगता है|

                  कौसानी में एक उत्तराखंड टी इस्टेट भी है जो कौसानी से ६ की:मी: की दूरी पर बैजनाथ की तरफ को है| यहाँ की चाय काफी खुशबूदार होती है| यहाँ की चाय विदेशो को जाती है जिसकी विदेशों में काफी मांग है| आम तुलना में यहाँ की चाय की कीमत बहुत ज्यादा है|   

Tuesday, April 12, 2011

स्याल्दे बिखोती



            बैशाखी भारत के सभी राज्यों में अलग अलग नाम से मनाई जाती है| हमारे उत्तराखंड में बैशाखी "बिखोती" के नाम से जानी जाती है| उत्तराखंड में हर एक संक्रांति को कोई मेला या त्यौहार होता है| बैशाख के महीने की संक्रांति को बिश्वत  संकरान्ति के नाम से जाना जाता है| इस दिन कुमाऊ में स्याल्दे  बिखोती का मेला लगता है| वैसे तो बिखोती को संगमों पर नहाने का भी रिवाज है| लोग बागेश्वर, जागेश्वर आदि संगमों पर नहाने जाते हैं| इस दिन इन संगमों पर भी अच्छा खासा मेला लग जाता है| इस दिन तिलों से नहाने का भी रिवाज है| तिल पवित्र होते हैं और हवन यज्ञ में प्रयोग होते हैं| कहते हैं कि साल भर में जो विष हमारे शरीर में जमा हुआ होता है इस दिन तिलों से नहाने पर वह विष झड जाता है|
           कुमाऊ में यह मेला द्वाराहाट में लगता है जो रानीखेत से २८ कि: मी: कि दुरी पर है| द्वाराहाट में पांडवों के ज़माने के कई मंदिर है, जो सभी पास पास हैं| इन मंदिर समूहों के बीच में एक पोखर (ताल ) भी है जहाँ यह मेला लगता है| इस मेले में भोट,नेपाल आदि जगहों से भी लोग आते हैं| यह मेला ब्यापारिक दृष्टि से भी काफी मशहूर है| लोगों को यहाँ पर अपनी जरुरत कि चीजों को खरीदने का मौका मिलता है|
            इस मेले में लोगों को अपनी कला का प्रदर्शन दिखने का भी अच्छा मौका मिलता है| नए कलाकार यहाँ आकर अपनी रचनाओं को गा गा कर सुनाते हैं,इस से लोगों का भी मनोरंजन हो जाता है| इस मेले में कई मशहूर कलाकार भी अपनी कला का प्रदर्शन कर के लोगों का मन मोह लेते हैं| इस सबंध में कुमाऊ के मशहूर गायक स्व: गोपाल बाबु गोश्वामी ने एक गीत गया है जिस के बोल इस तरह हैं|
            अलघतै  बिखोती मेरी दुर्गा हरे गे| सार कौतिका चनें मेरी कमरा पटे गे|
भाव:-इस बिखोती में मेरी दुर्गा खो गई है, सारे मेले में ढूढ़ते मेरी कमर थक गई है|           
           एक और गायक ने गाया है|
           हिट साईं कौतिक जानूं  द्वाराहटा | ओ भीना कसिका जानू द्वाराहटा |
भाव:-जीजा अपनी साली से मेले में चलने को कहता है पर साली अपनी मज़बूरी जताती है कैसे जाऊं मेले में|
         द्वाराहाट वैसे तो रानीखेत तहसील का एक छोटा सा क़स्बा है| यहाँ पर डिग्री कालेज है, पोलिटेक्निक है और इंजीनियरिग कालेज भी है| यहाँ से मात्र ६ कि: मी: की दूरी पर माता दूनागिरी जी का प्रसिद्द मंदिर है| जो दूनागिरी पर्वत पर बिराजमान है| कहते हैं कि इस द्रोणागिरी पर्वत पर अभी भी संजीवनी बूटी मिलती है परन्तु उसे ढूढने के लिए कोई सुशेन वेद्य चाहिए| 

                                                        
बैसाखी की हार्दिक शुभकामनाये|

फोटो साभार : google.com

Saturday, April 2, 2011

नवसंवत्सर २०६८ की हार्दिक शुभकामनाएँ|



              विक्रम संवत का आरम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है, जो इस वर्ष ४ अप्रेल को है| भारत में कालगणना  इसी दिन से प्रारंभ हुई| ऋतु मास  तिथि एवं पक्ष आदि की गणना भी यही से शुरू होती है| विक्रमी संवत के मासों के नाम आकाशीय नक्षत्रों के उदय अस्त से सम्बन्ध रखते हैं| वे सूर्य चन्द्र की गति पर आश्रित हैं| विक्रमी संवत पूर्णत: वैज्ञानिक सत्य पर स्थित हैं| विक्रम संवत सूर्य सिद्धांत पर चलता है|
              अर्थशास्त्र में काल गणना की इकाई "पल" है, एक पलक झपकने में जितना समय लगता है उसे पल कहते हैं|
              नवसंवत्सर बसंत ऋतु में आता है|  बसंत में सभी प्राणियों को मधुरस प्रकृति से प्राप्त होता है| काल गणना का सम्पूर्ण उपक्रम निसर्ग अथवा प्रकृति से तादात्म्य रख कर किया जाता है| चित्रा नक्षत्र से आरम्भ होने पर इस मास का नाम चैत्र  रखा गया| विशाखा नक्षत्र से बैशाख,जेष्ठा नक्षत्र से जेठ ,पुर्वाषाढा से आषाढ़ , श्रवन नक्षत्र से श्रवन , पूर्वभादरा से भादव, अश्वनी नक्षत्र से असोज (आश्विन), कृतिका से कार्तिक, मृगशिरा से मार्गशीर्ष; पुष्य से पौष, मघा  से माघ और पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र से फाल्गुन नामों का नामकरण हुआ|
            सूर्य का उदय होना और अस्त होना दिन रात का पैमाना बन गया| चन्द्रमा  का घटने बढ़ने का आशय चन्द्रमा  का पृथवी से दूरी घटने बढ़ने से है| इसके आधार पर ही शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष और महीने का अस्तित्व आया| दिन रात में २४ होरा होते हैं| प्रत्येक होरा का स्वामी सूर्य,शुक्र,बुध ,चन्द्र शनि, गुरु और मंगल को माना गया है| सूर्योदय के समय जिस गृह की होरा होती है उसदिन वही वार होता है| चन्द्र की होरा में चन्द्रवार (सोमवार) मंगल की होरा में मंगलवार, बुध की होरा में बुधवार, गुरु की होरा में गुरुवार, शुक्र की होरा में शुक्रवार, शनि की  होरा में शनिवार और सूर्य की होरा में रविवार होता है| इस प्रकार सातों दिवसों की गणना की गई है|
            हमारे उत्तराखंड में नवसंवत्सर के मौके पर लोग अपने घरों की लिपाई पोताई करके घर की साफ सफाई करते हैं| ऐपन(अलप्ना) निकालते है| हमारे यहाँ नवसंवत्सर का नाम पुरोहित से ही सुनने का रिवाज है| पुरोहित के मुंह से ही नवसंवत्सर का नाम सुनना शगुन माना जाता है|
            सभी ब्लॉग प्रेमियों को नवसंवत्सर २०६८  की हार्दिक शुभकामनाएँ|