Friday, September 6, 2013

कल्याण

                लोकरंजन की इच्छा वाला मनुष्य शुद्धाचारी ही हो ऐसी बात नहीं है। उसको तो अपने बाहरी दिखावे पर अधिक ध्यान रखना पड़ता है, इसीसे वह सुन्दर स्वर में गाना, मधुर भाषा में ब्याख्यान देना, नाचना, को हँसाने-रुलानेके उद्देश्यसे विभिन्न प्रकार के स्वरों में बोलना, भाव  बताना, मुखाकृति बनाना,ध्यानस्थ की भाँति बैठना आदि न मालूम कितनी बातें  करता है। उसका ध्यान रहता है कि मेरे गायन,भाषण व्याख्यान,सत्संग से और मेरी ध्यानस्थ मुर्तिसे लोगों का मेरी ओर खिंचाव हुआ या नहीं। गान,नृत्य, भावप्रदर्शन आदि चीजें कला की दृष्टिसे बहुत उपादेय हैं और किसी सीमातक प्रचारकी दृष्टिसे भी इसकी उपयोगिता है,परंतु जहाँ और जितने अंश में इनका उपयोग केवल लोकरंजन के लिए होता है,वहां उतने अंश में इस लोकरंजन के पीछे,किसी भी हेतुसे हो,अपने व्यक्तित्व के प्रचारकी वासना छिपी रहती है। तुम यदि साधक पुरुष हो अथवा अपना पारमार्थिक कल्याण चाहते हो तो ऐसी वासना को मनद्वारा कहीं किसी कोने में भी मत रहने  दो। भगवान की भक्ति और सदाचार का प्रचार भगवत्सेवा के लिए ही करो।   

4 comments:

  1. आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शनिवारीय चर्चा मंच पर ।।

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  2. सच है, प्रवृत्तियों को राह मिले..

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  3. आज कितने लोग हैं जी इसके लोभ से बच पाते हैं ...
    सुन्दर चर्चा ...

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